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अन्य है
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[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [रूपं अन्यत् ] रूप अन्य है
अन्य है
[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [गंधं अन्यं ] गंध अन्य है
रस अन्य है
[ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [स्पर्शं अन्यं ] स्पर्श अन्य है
कर्म अन्य है
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है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [धर्मं अन्यं ] धर्म अन्य है
इसलिए [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य हैं, [अधर्मं अन्यम् ] अधर्म अन्य है
है, [कालं अन्यं ] काल अन्य है
कुछ जानता नहीं है, [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञान अन्य है, [आकाशम् अन्यत् ]
आकाश अन्य है
इसलिये [ज्ञानम् अन्यत् ] ज्ञान अन्य है [तथा अध्यवसानं अन्यत् ] तथा अध्यवसान अन्य है (
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(पुण्य-पाप) [तथा प्रव्रज्याम् ] तथा दीक्षा [अभ्युपयान्ति ] मानते हैं
व्यतिरेक है (अर्थात् दोनों भिन्न हैं)
व्यतिरेक (
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निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः
चारित्रस्थितिरूपं स्वसमयमवाप्य मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावं
अध्यवसानके व्यतिरेक है
ही ज्ञान है
अनादि विभ्रम जिसका मूल है ऐसे धर्म-अधर्मरूप (पुण्य-पापरूप, शुभ-अशुभरूप,)
परसमयको दूर करके, स्वयं ही प्रव्रज्यारूपको प्राप्त करके (अर्थात् स्वयं ही निश्चयचारित्ररूप
दीक्षाभावको प्राप्त करके), दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको प्राप्त करके,
मोक्षमार्गको अपनेमें ही परिणत करके, जिसने सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभावको प्राप्त किया है
ऐसा, त्यागग्रहणसे रहित, साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्धज्ञान एक अवस्थित
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अतिव्याप्तिवाला नहीं है, और अपनी सर्व अवस्थाओंमें है; इसलिए अव्याप्तिवाला नहीं है
कितने ही तो
(धर्म) परद्रव्यके निमित्तसे हुये हैं उन्हें कहनेसे परमार्थभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप कैसे जाना
जा सकता है ? इसलिए ज्ञानके कहनेसे ही छद्मस्थ ज्ञानी आत्माको पहिचान सकता है
स्वसमयको प्राप्त करके, ऐसे स्वसमयरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें अपनेको परिणमित
करके, सम्पूर्णविज्ञानघनस्वभावको प्राप्त हुआ है, और जिसमें कोई त्याग-ग्रहण नहीं है, ऐसे
साक्षात् समयसारस्वरूप, परमार्थभूत, निश्चल रहा हुआ, शुद्ध, पूर्ण ज्ञानको (पूर्ण
आत्मद्रव्यको) देखना चाहिए
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मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम्
शुद्धज्ञानघनो यथाऽस्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति
एकाग्र
पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है
[आदान-उज्झन-शून्यम् ] ग्रहणत्यागसे रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं ] यह अमल (
महिमा ] आदि-मध्य-अन्तरूप विभागोंसे रहित ऐसी सहज फै ली हुई प्रभाके द्वारा देदीप्यमान
ऐसी उसकी शुद्धज्ञानघनस्वरूप महिमा [नित्य-उदितः-तिष्ठति ] नित्य-उदित रहे (
सदा उदित रहती है
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तथात्तमादेयमशेषतस्तत्
पूर्णस्य सन्धारणमात्मनीह
और [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम् ] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है
जो कुछ था उसे ग्रहण किया है
है कि जिससे उसके देहकी शंका की जा सके ? (ज्ञानके देह हो ही नहीं सकती, क्योंकि उसके
कर्म-नोकर्मरूप आहार ही नहीं है
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[मूर्तः ] मूर्तिक है, [यस्मात् ] क्योंकि [सः तु पुद्गलमयः ] वह पुद्गलमय है
[तस्य ] उसका (
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स्वाभाविक) गुणकी सामर्थ्यसे ज्ञानके द्वारा परद्रव्यका ग्रहण तथा त्याग करना अशक्य है
कारण नहीं है
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[वदन्ति ] यह कहते हैं कि [इदं लिङ्गम् ] यह (बाह्य) लिंग [मोक्षमार्गः इति ] मोक्षमार्ग है
[दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही सेवन करते हैं
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दर्शनात्
उपासना देखी जाती है (अर्थात् वे शरीराश्रित द्रव्यलिंगका त्याग करके दर्शनज्ञानचारित्रको
मोक्षमार्गके रूपमें सेवन करते हुए देखे जाते हैं)
निश्चय हुआ कि
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हैं; उन व्रतोंको यहाँ नहीं छुड़ाया है, किन्तु यह कहा है कि उन व्रतोंका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ
मोक्षमार्गमें लगनेसे मोक्ष होता है, केवल वेशमात्रसे
है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको (यह
दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है
विहार मत कर
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निरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन
शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षण-
विजृम्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; तथा ज्ञानरूप-
मेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि
मा विहार्षीः
सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति
समस्त अन्य चिन्ताके निरोध द्वारा अत्यन्त एकाग्र होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही ध्यान कर; तथा
समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रको
ही चेत
अवलम्बन करता हुआ, जो ज्ञेयरूप होनेसे उपाधिस्वरूप हैं ऐसे सर्व ओरसे फै लते हुए समस्त
परद्रव्योंमें किंचित् मात्र भी विहार मत कर
नहीं करना चाहिए
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लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः
प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते
चेतति ] उसीको चेतता है
नित्य-उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति ] वह पुरुष, जिसका उदय नित्य रहता है
ऐसे समयके सारको (अर्थात् परमात्माके रूपको) अल्प कालमें ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात्
उसका अनुभव करता है
अपने आत्माके द्वारा द्रव्यमय लिंगमें ममता करते हैं (अर्थात् यह मानते हैं कि यह द्रव्यलिंग ही
हमें मोक्ष प्राप्त करा देगा), [ते तत्त्व-अवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति ]
वे पुरुष तत्त्वके यथार्थ ज्ञानसे रहित होते हुए अभी तक समयके सारको (अर्थात् शुद्ध आत्माको)
नहीं देखते
[अखण्डम् ] अखण्ड है (अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदिके निमित्त खण्ड नहीं होते), [एकम् ]
एक है (अर्थात् पर्यायोंसे अनेक अवस्थारूप होने पर भी जो एकरूपत्वको नहीं छोड़ता),
[अतुल-आलोकं ] अतुल (
चैतन्यप्रकाशका समूहरूप है), [अमलं ] अमल है (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मलसे रहित है)
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पश्यन्ति
कि यह द्रव्यलिंग ही मोक्षका दाता है), [तैः समयसारः न ज्ञातः ] उन्होंने समयसारको नहीं जाना
व्यवहारमें मूढ़ (मोही) होते हुए, प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय (
परन्तु जिससे भेदज्ञान होता है ऐसे निश्चयको वे नहीं जानते
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ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वतः
बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम् ] जैसे जगतमें जिनकी बुद्धि तुषके ज्ञानमें ही मोहित है
(
(अर्थात् जो शरीरादिकी क्रियामें ममत्व किया करते हैं), उन्होंने शुद्धात्मानुभवनरूप परमार्थको
जाना नहीं है; अर्थात् ऐसे जीव शरीरादि परद्रव्यको ही आत्मा जानते हैं, वे परमार्थ आत्माके
स्वरूपको जानते ही नहीं
ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः ] मात्र यह ज्ञान ही निजसे (आत्मद्रव्यसे) होता है
हैं
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भावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं
कहता है); [निश्चयनयः ] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि ] सभी लिंगोंको (अर्थात् किसी भी लिंगको)
[मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता
परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है, इसलिये उसको
परमार्थताका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रान्त, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त
परिणतिमात्र (