Samaysar (Hindi). Kalash: 244-261 ; Gatha: 415 ; End; Parishistam; 14 bhangs of anekant quote; 1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,11,12,13,14.

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चेतयन्ते, ते एव समयसारं चेतयन्ते
(मालिनी)
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
।।२४४।।
(अनुष्टुभ्)
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम्
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४५।।
हैं, वे ही समयसारका अनुभव करते हैं
भावार्थ :व्यवहारनयका विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य है, इसलिये वह परमार्थ नहीं
है; निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है, इसलिये वही परमार्थ है इसलिये, जो व्यवहारको
ही निश्चय मानकर प्रवर्तन करते हैं वे समयसारका अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थ
मानकर प्रवर्तन करते हैं वे ही समयसारका अनुभव करते हैं (इसलिये वे ही मोक्षको प्राप्त करते
हैं)
।।४१४।।
‘अधिक कथनसे क्या, एक परमार्थका ही अनुभवन करो’इस अर्थका काव्य कहते
हैं :
श्लोकार्थ :[अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथनसे और बहुत
दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; [इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः
एकः नित्यम् चेत्यताम् ]
इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-
ज्ञान-विस्फू र्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ]
क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण
जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार (
परमात्मा) उससे उच्च वास्तवमें दूसरा कुछ
भी नहीं है (समयसारके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)
भावार्थ :पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिए; इसके अतिरिक्त वास्तवमें
दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।२४४।
अब, अन्तिम गाथामें यह समयसार ग्रन्थके अभ्यास इत्यादिका फल कहकर
आचार्यभगवान इस ग्रन्थको पूर्ण करते हैं; उसका सूचक श्लोक पहले कहा जा रहा है :
श्लोकार्थ :[आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षताम् नयत् ] आनन्दमय विज्ञानघनको

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जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं
अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।।४१५।।
यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा
अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ।।४१५।।
यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्व-
समयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थ-
परमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति
एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षण-
(शुद्ध परमात्माको, समयसारको) प्रत्यक्ष करता हुआ, [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः ] यह
एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु (समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है
भावार्थ :यह समयप्राभूत ग्रन्थ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसेदोनों प्रकारसे जगतको
अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे) अद्वितीय नेत्र समान हैं, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको
प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर
दिखलाता है
।२४५।
अब, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस ग्रन्थको पूर्ण करते हैं, इसलिये उसकी महिमाकें
रूपमें उसके अभ्यास इत्यादिका फल इस गाथामें कहते हैं :
यह समयप्राभृत पठन करके, जान अर्थ रु तत्त्वसे
ठहरे अरथमें जीव जो, वह सौख्य उत्तम परिणमे।।४१५।।
गाथार्थ :[यः चेतयिता ] जो आत्मा (भव्य जीव) [इदं समयप्राभृतम् पठित्वा ]
इस समयप्राभृतको पढ़कर, [अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा ] अर्थ और तत्त्वसे जानकर, [अर्थे स्थास्यति ]
उसके अर्थमें स्थित होगा, [सः ] वह [उत्तमं सौख्यम् भविष्यति ] उत्तम सौख्यस्वरूप होगा
टीका :समयसारभूत इस भगवान परमात्माकाजो कि विश्वका प्रकाशक होनेसे
विश्वसमय है उसकाप्रतिपादन करता है, इसलिये जो स्वयं शब्दब्रह्मके समान है ऐसे इस
शास्त्रको जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर, विश्वको प्रकाशित करनेमें समर्थ ऐसे परमार्थभूत, चैतन्य-
प्रकाशरूप आत्माका निश्चय करता हुआ (इस शास्त्रको) अर्थसे और तत्त्वसे जानकर, उसीके

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विजृम्भमाणचिदेकरसनिर्भरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानन्दशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्व-
लक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति
(अनुष्टुभ्)
इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम्
अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम् ।।२४६।।
अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परब्रह्ममें सर्व उद्यमसे स्थित होगा, वह आत्मा, साक्षात् तत्क्षण
प्रगट होनेवाले एक चैतन्यरससे परिपूर्ण स्वभावमें सुस्थित और निराकुल (
आकुलता बिनाका)
होनेसे जो (सौख्य) ‘परमानन्द’ शब्दसे वाच्य है, उत्तम है और अनाकुलता-लक्षणयुक्त है ऐसे
सौख्यस्वरूप स्वयं ही हो जायेगा
भावार्थ :इस शास्त्रका नाम समयप्राभृत है समयका अर्थ है पदार्थ अथवा समय
अर्थात् आत्मा उसका कहनेवाला यह शास्त्र है और आत्मा तो समस्त पदार्थोका प्रकाशक है
ऐसे विश्वप्रकाशक आत्माको कहनेवाला होनेसे यह समयप्राभृत शब्दब्रह्मके समान है; क्योंकि जो
समस्त पदार्थोंका कहनेवाला होता है उसे शब्दब्रह्म कहा जाता है
द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म है और
इस समयप्राभृतशास्त्रको भी शब्दब्रह्मकी उपमा दी गई है यह शब्दब्रह्म (अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र)
परब्रह्मको (अर्थात् शुद्ध परमात्माको) साक्षात् दिखाता है जो इस शास्त्रको पढ़कर उसके यथार्थ
अर्थमें स्थित होगा, वह परब्रह्मको प्राप्त करेगा; और उससे जिसे ‘परमानन्द’ कहा जाता है ऐसे,
उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखको प्राप्त करेगा
इसलिये हे भव्य जीवों !
तुम अपने कल्याणके लिये इसका अभ्यास करो, इसका श्रवण करो, निरन्तर इसीका स्मरण और
ध्यान करो, कि जिससे अविनाशी सुखकी प्राप्ति हो
ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है।।४१५।।
अब, इस सर्वविशुद्धज्ञानके अधिकारकी पूर्णताका कलशरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम् ] इसप्रकार यह आत्माका
तत्त्व (अर्थात् परमार्थभूतस्वरूप) ज्ञानमात्र निश्चित हुआ[अखण्डम् ] कि जो (आत्माका)
ज्ञानमात्रतत्त्व अखण्ड है (अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोंसे यद्यपि खण्डखण्ड
दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खण्ड नहीं है), [एकम् ] एक है (अर्थात् अखण्ड होनेसे
एकरूप है), [अचलं ] अचल है (अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता
ज्ञेयरूप नहीं होता,
[स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है (अर्थात् अपनेसे ही ज्ञात होने योग्य है), [अबाधितम् ] और अबाधित
है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)
भावार्थ :यहाँ आत्माका निज स्वरूप ज्ञान ही कहा है इसका कारण यह हैःआत्मामें

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इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपकः
नवमोऽङ्कः ।।
❀ ❀ ❀
अनन्त धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे अतिव्याप्तियुक्त हैं, उनसे आत्माको
पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म) पर्यायाश्रित हैं
किसी अवस्थामें होते हैं और किसी
अवस्थामें नहीं होते, इसलिये वे अव्याप्तियुक्त हैं, उनसे भी आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता
चेतनता यद्यपि आत्माका (अतिव्याप्ति और अव्याप्ति रहित) लक्षण है, तथापि वह शक्तिमात्र है,
अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है
उस दर्शन और ज्ञानमें भी ज्ञान साकार है, प्रगट
अनुभवगोचर है; इसलिये उसके द्वारा ही आत्मा पहिचाना जा सकता है इसलिये यहाँ इस ज्ञानको
ही प्रधान करके आत्माका तत्त्व कहा है
यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ‘आत्माको ज्ञानमात्र तत्त्ववाला कहा है, इसलिये इतना
ही परमार्थ है और अन्य धर्म मिथ्या है, वे आत्मामें नहीं हैं, ऐसा सर्वथा एकान्त ग्रहण करनेसे
तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदान्तियोंका मत आ जाता है; इसलिये
ऐसा एकान्त बाधासहित है
ऐसे एकान्त अभिप्रायसे कोई मुनिव्रत भी पाले और आत्माका
ज्ञानमात्रकाध्यान भी करे, तो भी मिथ्यात्व नहीं कट सकता; मन्द कषायोंके कारण भले ही
स्वर्ग प्राप्त हो जाये, किन्तु मोक्षका साधन तो नहीं होता इसलिये स्याद्वादसे यथार्थ समझना
चाहिए।२४६।
(सवैया)
सरवविशुद्धज्ञानरूप सदा चिदानन्द करता न भोगता न परद्रव्यभावको,
मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि वे भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकूं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको,
कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार
परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक
टीकामें सर्वविशुद्धज्ञानका प्ररूपक नौवाँ अंक समाप्त हुआ

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[परिशिष्टम्]
(अनुष्टुभ्)
अत्र स्याद्वादशुद्धयर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः
उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ।।२४७।।
[परिशिष्ट]
(यहाँ तक भगवत्-कुन्दकुन्दाचार्यकी ४१५ गाथाओंका विवेचन टीकाकार श्री
अमृतचन्द्राचार्यदेवने किया है, और उस विवेचनमें कलशरूप तथा सूचनिकारूपसे २४६
काव्य कहे हैं
अब टीकाकार आचार्यदेव विचारते हैं किइस शास्त्रमें ज्ञानको प्रधान
करके आत्माको ज्ञानमात्र कहते आये हैं, इसलिये कोई यह तर्क करे कि‘जैनमत तो
स्याद्वाद है; तब क्या आत्माको ज्ञानमात्र कहनेसे एकान्त नहीं हो जाता ? अर्थात् स्याद्वादके
साथ विरोध नहीं आता ? और एक ही ज्ञानमें उपायतत्त्व तथा उपेयतत्त्व
दोनों कैसे घटित
होते हैं ?’ ऐसे तर्कका निराकरण करनेके लिये टीकाकार आचार्यदेव यहाँ समयसारकी
‘आत्मख्याति’ टीकाके अन्तमें परिशिष्ट रूपसे कुछ कहते हैं
उसमें प्रथम श्लोक इसप्रकार
है :
श्लोकार्थ :[अत्र ] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [वस्तु-
तत्त्व-व्यवस्थितिः ] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च ] और [उपाय-उपेय-भावः ] (एक ही ज्ञानमें
उपाय
उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलानेके लिये) उपाय-उपेयभावका [मनाक् भूयः
अपि ] जरा फि रसे भी [चिन्त्यते ] विचार करते हैं
भावार्थ :वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह
स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता (प्रमाणिकता,
सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करनेके लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका
विचार किया जाता है
(इसमें यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र
कहा है फि र भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्व
तथा साध्यत्व कैसे बन सकता है यह समझानेके लिये ज्ञानके उपाय-उपेयभावका अर्थात्
साधकसाध्यभावका भी इस परिशिष्टमें विचार किया जायेगा
।२४७।
(अब, प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपके विचार द्वारा स्याद्वाद
को सिद्ध करते हैं :)

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स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य स तु
सर्वमनेकान्तात्मकमित्यनुशास्ति, सर्वस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तस्वभावत्वात् अत्र त्वात्मवस्तुनि
ज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोपः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्त-
त्वात्
तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं
तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्ति द्वयप्रकाशनमनेकान्तः तत्स्वात्मवस्तुनो
ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपाति-
रिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्, अविभागैक-
द्रव्यव्याप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायैरनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्ति स्वभाववत्त्वेन
सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्ति स्वभाववत्त्वेनासत्त्वात्, अनादिनिधनाविभागैक-
75
स्याद्वाद समस्त वस्तुओंके स्वरूपको सिद्ध करनेवाला, अर्हत् सर्वज्ञका एक अस्खलित
(निर्बाध) शासन है वह (स्याद्वाद) ‘सब अनेकान्तात्मक है’ इसप्रकार उपदेश करता है,
क्योंकि समस्त वस्तु अनेकान्त-स्वभाववाली है (‘सर्व वस्तुऐं अनेकान्तस्वरूप हैं’ इसप्रकार जो
स्याद्वाद कहता है सो वह असत्यार्थ कल्पनासे नहीं कहता, परन्तु जैसा वस्तुका अनेकान्त स्वभाव
है वैसा ही कहता है
)
यहाँ आत्मा नामक वस्तुको ज्ञानमात्रतासे उपदेश करने पर भी स्याद्वादका कोप नहीं है;
क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको स्वयमेव अनेकान्तात्मकत्व है वहाँ (अनेकान्तका ऐसा स्वरूप
है कि), जो (वस्तु) तत् है वही अतत् है, जो (वस्तु) एक है वही अनेक है, जो सत् है वही
असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है
इसप्रकार ‘‘एक वस्तुमें वस्तुत्वकी निष्पादक परस्पर
विरुद्ध दो शक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है’’ इसलिए अपनी आत्मवस्तुको भी,
ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्त्व-अतत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, सत्त्व-असत्त्व, और नित्यत्व-
अनित्यत्वपना प्रकाशता ही है; क्योंकि
उसके (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके) अन्तरंगमें
चकचकित प्रकाशते ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्पना है, और बाहर प्रगट होते अनन्त, ज्ञेयत्वको प्राप्त,
स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा (
ज्ञानस्वरूपसे भिन्न ऐसे परद्रव्यके रूप द्वारा) अतत्पना
है (अर्थात् ज्ञान उस-रूप नहीं है); सहभूत (साथ ही) प्रवर्तमान और क्रमशः प्रवर्तमान
अनन्त चैतन्यअंशोके समुदायरूप अविभाग द्रव्यके द्वारा एकत्व है, और अविभाग एक द्रव्यसे
व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य-अंशरूप (चैतन्यके अनन्त
अंशोंरूप) पर्यायोंके द्वारा अनेकत्व है; अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे होनेकी शक्तिरूप जो
स्वभाव है उस स्वभाववानपनेके द्वारा (अर्थात् ऐसे स्वभाववाली होनेसे) सत्त्व है, और परके
द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होनेकी शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपनेके द्वारा
असत्त्व है; अनादिनिधन अविभाग एक वृत्तिरूपसे परिणतपनेके द्वारा नित्यत्व है, और क्रमशः

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वृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्,
तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव
ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तः प्रकाशते, तर्हि
किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकान्तः ? अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्धयर्थमिति
ब्रूमः
न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति तथा हिइह हि स्वभावत एव
बहुभावनिर्भरे विश्वे सर्वभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्धुमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु
स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव
तत्र यदायं ज्ञानमात्रो भावः शेषभावैः सह
स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञेयसम्बन्धतयाऽनादिज्ञेयपरिणमनात् ज्ञानतत्त्वं पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानी भूत्वा
नाशमुपैति, तदा स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव
तमुद्गमयति १
यदा तु सर्वं वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं
प्रवर्तमान, एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्ति-अंशों-रूपसे परिणतपनेके द्वारा अनित्यत्व है
(इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको भी, तत्-अतत्पना इत्यादि दो-दो विरुद्ध शक्तियाँ स्वयमेव
प्रकाशित होती हैं, इसलिये अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशित होता है
)
(प्रश्न) यदि आत्मवस्तुको, ज्ञानमात्रता होने पर भी, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशता
है, तब फि र अर्हन्त भगवान उसके साधनके रूपमें अनेकान्तका (-स्याद्वादका) उपदेश क्यों
देते हैं ?
(उत्तर) अज्ञानियोंके ज्ञानमात्र आत्मवस्तुकी प्रसिद्धि करनेके लिये उपदेश देते हैं
ऐसा हम कहते हैं वास्तवमें अनेकान्त (स्याद्वाद) के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही प्रसिद्ध
नहीं हो सकती इसीको इसप्रकार समझाते हैं :
स्वभावसे ही बहुतसे भावोंसे भरे हुए इस विश्वमें सर्व भावोंका स्वभावसे अद्वैत होने
पर भी, द्वैतका निषेध करना अशक्य होनेसे समस्त वस्तुस्वरूपमें प्रवृत्ति और पररूपसे
व्यावृत्तिके द्वारा दोनों भावोंसे अध्यासित है (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवर्तमान होनेसे
और पररूपसे भिन्न रहनेसे प्रत्येक वस्तुमें दोनों भाव रह रहे हैं)
वहाँ, जब यह ज्ञानमात्र
भाव (-आत्मा), शेष (बाकीके) भावोंके साथ निज रसके भारसे प्रवर्तित ज्ञाताज्ञेयके
सम्बन्धके कारण और अनादि कालसे ज्ञेयोंके परिणमनके कारण ज्ञानतत्त्वको पररूप मानकर
(अर्थात् ज्ञेयरूपसे अंगीकार करके) अज्ञानी होता हुआ नाशको प्राप्त होता है, तब (उसे
ज्ञानमात्र भावका) स्व-रूपसे (
ज्ञानरूपसे) तत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान ज्ञानरूपसे
ही है ऐसा प्रगट करके), ज्ञातारूपसे परिणमनके कारण ज्ञानी करता हुआ, अनेकान्त ही
(
स्याद्वाद ही) उसका उद्धार करता हैनाश नहीं होने देता।१।

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नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न
ददाति २
यदानेकज्ञेयाकारैः खण्डितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं
द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ३ यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकार-
त्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ४
यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण
सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५
यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं
ज्ञातृद्रव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं
न ददाति ६
यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘वास्तवमें यह सब आत्मा है’ इसप्रकार अज्ञानतत्त्वको स्व-
रूपसे (ज्ञानस्वरूपसे) मानकरअंगीकार करके विश्वके ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है
(सर्व जगतको निजरूप मानकर उसका ग्रहण करके जगत्से भिन्न ऐसे अपनेको नष्ट करता है),
तब (उस ज्ञानमात्र भावका) पररूपसे अतत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान पररूप नहीं है यह
प्रगट करके) विश्वसे भिन्न ज्ञानको दिखाता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना (
ज्ञानमात्र भावका)
नाश नहीं करने देता।२।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारोंके द्वारा (ज्ञेयोंके आकारों द्वारा) अपना सकल
(अखण्ड, सम्पूर्ण) एक ज्ञान-आकार खण्डित (खण्डखण्डरूप) हुआ मानकर नाशको प्राप्त
होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) द्रव्यसे एकत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे
जीवित रखता है
नष्ट नहीं होने देता।३।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान-आकारका ग्रहण करनेके लिये अनेक ज्ञेयाकारोंके
त्याग द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानमें जो अनेक ज्ञेयोंके आकार आते हैं उनका त्याग
करके अपनेको नष्ट करता है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) पर्यायोंसे अनेकत्व प्रकाशित करता
हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
।४।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, जाननेमें आनेवाले ऐसे परद्रव्योंके परिणमनके कारण ज्ञातृद्रव्यको
परद्रव्यरूपसे मानकरअंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है तब, (उस ज्ञानमात्र भावका)
स्वद्रव्यसे सत्त्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता हैनष्ट नहीं होने देता।५।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व द्रव्य मैं ही हूँ (अर्थात् सर्व द्रव्य आत्मा ही हैं)’
इसप्रकार परद्रव्यको ज्ञातृद्रव्यरूपसे मानकरअंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस
ज्ञानमात्र भावका) परद्रव्यसे असत्त्व प्रकाशित करता हुआ, (अर्थात् आत्मा परद्रव्यरूपसे नहीं है,
इसप्रकार प्रगट करता हुआ) अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
।६।

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नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ७ यदा तु स्वक्षेत्रे
भवनाय परक्षेत्रगतज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वन्नात्मानं नाशयति, तदा स्वक्षेत्र
एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव नाशयितुं न ददाति ८
यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य
नाशमुपैति, तदा स्वकालेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ९ यदा त्वर्थालम्बन-
काल एव ज्ञानस्य सत्त्वं प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परकालेनासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव नाशयितुं न ददाति १०
यदा ज्ञायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायकभावं परभावत्वेन
प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वभावेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ११ यदा
तु सर्वे भावा अहमेवेति परभावं ज्ञायकभावत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परभावेना-
जब यह ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत (-परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंके परिणमनके कारण
परक्षेत्रसे ज्ञानको सत् मानकरअंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका)
स्वक्षेत्रसे अस्तित्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता हैनष्ट नहीं होने देता।७।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रमें होनेके लिये (रहनेके लिये, परिणमनेके लिए),
परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकारोंके त्याग द्वारा (अर्थात् ज्ञानमें जो परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेंयोका आकार आता
है उनका त्याग करके) ज्ञानको तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है, तब स्वक्षेत्रमें रहकर ही
परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकाररूपसे परिणमन करनेका ज्ञानका स्वभाव होनेसे (उस ज्ञानमात्र भावका)
परक्षेत्रसे नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता
।८।
जब यह ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोके विनाशकालमें (पूर्वमें जिनका आलम्बन
किया था ऐसे ज्ञेय पदार्थोके विनाशके समय) ज्ञानका असत्पना मानकरअंगीकार करके
नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) स्वकालसे (-ज्ञानके कालसे) सत्पना
प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है
नष्ट नहीं होने देता।९।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव पदार्थोंके आलम्बन कालमें ही (मात्र ज्ञेय पदार्थोंको जानते
समय ही) ज्ञानका सत्पना मानकरअंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र
भावका) परकालसे (ज्ञेयके कालसे) असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना
नाश नहीं करने देता।१०।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, जाननेमें आते हुए परभावोंके परिणमनके कारण, ज्ञायकस्वभावको
परभावरूपसे मानकरअंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) स्व-
भावसे सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता हैनष्ट नहीं होने देता।११।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व भाव मैं ही हूँ’ इसप्रकार परभावको ज्ञायकभावरूपसे

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सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १२ यदाऽनित्यज्ञानविशेषैः
खण्डितनित्यज्ञानसामान्यो नाशमुपैति, तदा ज्ञानसामान्यरूपेण नित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव तमुज्जीवयति १३
यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं
नाशयति, तदा ज्ञानविशेषरूपेणानित्यत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति १४
भवन्ति चात्र श्लोकाः
(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्यार्थैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्ति रिक्तीभवद्
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति
यत्तत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन-
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति
।।२४८।।
मानकरअंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) परभावसे असत्पना
प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।१२।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनित्यज्ञानविशेषोंके द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य खण्डित हुआ
मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानसामान्यरूपसे नित्यत्व प्रकाशित
करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता है
नष्ट नहीं होने देता।१३।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव नित्य ज्ञानसामान्यका ग्रहण करनेके लिये अनित्य ज्ञानविशेषोंके
त्यागके द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानके विशेषोंका त्याग करके अपनेको नष्ट करता
है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानविशेषरूपसे अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही
उसे अपना नाश नहीं करने देता
।१४।
(यहाँ तत्-अतत्के २ भंग, एक-अनेकके २ भंग, सत्-असत्के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे
८ भंग, और नित्य-अनिन्यके २ भंगइसप्रकार सब मिलाकर १४ भंग हुए इन चौदह भंगोंमें
यह बताया है किएकान्तसे ज्ञानमात्र आत्माका अभाव होता है और अनेकान्तसे आत्मा जीवित
रहता है; अर्थात् एकान्तसे आत्मा जिस स्वरूप है उस स्वरूप नहीं समझा जाता, स्वरूपमें
परिणमित नहीं होता, और अनेकान्तसे वह वास्तविक स्वरूपसे समझा जाता है, स्वरूपमें परिणमित
होता है
)
यहाँ निम्न प्रकारसे (चौदह भंगोंके कलशरूप) चौदह काव्य भी कहे जा रहे हैं
(उनमेंसे पहले, प्रथम भंगका कलशरूप काव्य इसप्रकार है :)
श्लोकार्थ :[बाह्य-अर्थैः परिपीतम् ] बाह्य पदार्थोंके द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया,

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(शार्दूलविक्रीडित)
विश्वं ज्ञानमिति प्रतर्क्य सकलं द्रष्ट्वा स्वतत्त्वाशया
भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते
यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-
र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्
।।२४९।।
[उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवद् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त (शून्य)
हुआ, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं ] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत (अर्थात् पररूपके ऊ पर ही
आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं ] पशुका ज्ञान (
पशुवत् एकान्तवादीका ज्ञान) [सीदति ]
नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादिनः तत् पुनः ] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह
स्वरूपतः तत्’ इति ]
‘जो तत् है वह स्वरूपसे तत् है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको
वस्तुको स्वरूपसे
तत्पना है)’ ऐसी मान्यताके कारण [दूरउन्मग्न-घन-स्वभाव-भरतः ] अत्यन्त प्रगट हुए
ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे, [पूर्णं समुन्मज्जति ] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है
भावार्थ :कोई सर्वथा एकान्तवादी तो यह मानता है किघटज्ञान घटके आधारसे
ही होता है, इसलिये ज्ञान सब प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है ऐसा माननेवाले
एकान्तवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं
किज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानत्वको नहीं
छोड़ता ऐसी यथार्थ अनेकान्त समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा)
प्रगट प्रकाशित होता है
इसप्रकार स्वरूपसे तत्पनेका भंग कहा है।२४८।
(अब, दूसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकन्तवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’ इति
प्रतर्क्य ] ‘विश्व ज्ञान है (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)’ ऐसा विचार करके [सकलं स्वतत्त्व-
आशया दृष्टवा ]
सबको (
समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा ]
विश्वमय (समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते ] पशुकी भाँति
स्वच्छंदतया चेष्टा करता हैप्रवृत्त होता है; [पुनः ] और [स्याद्वाददर्शी ] स्याद्वादका देखनेवाला
तो यह मानता है कि[‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह पररूपसे तत्
नहीं है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होने पर भी पररूपसे अतत्पना है),’ इसलिये
[विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं ] विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे (
विश्वके निमित्तसे)

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(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लस-
ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्ति रभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति
एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसय-
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित्
।।२५०।।
रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होने पर
भी समस्त ज्ञेय वस्तुसे भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने स्वतत्त्वका स्पर्श
अनुभव
करता है
भावार्थ :एकान्तवादी यह मानता है किविश्व (समस्त वस्तुऐं) ज्ञानरूप अर्थात्
निजरूप है इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपनेको विश्वमय मानकर,
एकान्तवादी, पशुकी भाँति हेय-उपादेयके विवेकके बिना सर्वत्र स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करता है
स्याद्वादी तो यह मानता है किजो वस्तु अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे
अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, परन्तु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप
है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकाररूप होने पर भी उनसे भिन्न है
इसप्रकार पररूपसे अतत्पनेका भंग कहा है।२४९।
(अब, तीसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य-अर्थ-ग्रहण-
स्वभाव-भरतः ] बाह्य पदार्थोंको ग्रहण करनेके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयताके कारण,
[विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक
प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण (
छिन्न-भिन्न) हो गई ऐसा होकर (अर्थात् अनेक
ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें ज्ञात होने पर ज्ञानकी शक्तिको छिन्न-भिन्नखंड-खंडरूपहो गई
मानकर) [अभितः त्रुटयन् ] सम्पूर्णतया खण्ड-खण्डरूप होता हुआ (अर्थात् खंड-खंडरूप
अनेकरूपहोता हुआ) [नश्यति ] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका
जानकार तो, [सदा अपि उदितया एकद्रव्यतया ] सदैव उदित (प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके
कारण [भेदभ्रमं ध्वंसयन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा
भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक
है (
सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [पश्यति ] देखता
हैअनुभव करता है

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(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञेयाकारकलंक मेचकचिति प्रक्षालनं कल्पय-
न्नेकाकारचिकीर्षया स्फु टमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति
वैचित्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतःक्षालितं
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित्
।।२५१।।
भावार्थ :ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है,
इसलिये सर्वथा एकान्तवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक खण्ड-खण्डरूपदेखता हुआ ज्ञानमय
ऐसे निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होने पर भी, सदा उदयमान
द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है
इसप्रकार एकत्वका भंग कहा है ।२५०।
(अब, चौथे भंगका फलशरूप काव्य कहा जाता हैः)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ज्ञेयाकार-कलङ्क-
मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन् ] ज्ञेयाकाररूपी कलङ्कसे (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसे चेतनमें
प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालनेकी
कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति ] एकाकार करनेकी
इच्छासे ज्ञानको
यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूपसे प्रगट है तथापिनहीं चाहता (अर्थात्
ज्ञानको सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञानका अभाव करता है); [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका
जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकताको जानता
(अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम् ] विचित्र होने पर भी अविचित्रताको
प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [स्वतः क्षालितं ] स्वतः क्षालित
(स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध) [पश्यति ] अनुभव करता है
भावार्थ :एकान्तवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानको मलिन जानकर, उसे
धोकरउसमेंसे ज्ञेयाकारोंको दूर करके, ज्ञानको ज्ञेयाकारोंसे रहित एक-आकाररूप करनेको
चाहता हुआ, ज्ञानका नाश करता है; और अनेकान्ती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावको जानता है, इसलिये
ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है
इसप्रकार अनेकत्वका भंग कहा है।२५१।
(अब, पाँचवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)

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(शार्दूलविक्रीडित)
प्रत्यक्षालिखितस्फु टस्थिरपरद्रव्यास्तितावंचितः
स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति
स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मज्जता
स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति
।।२५२।।
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुषं दुर्वासनावासितः
स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येषु विश्राम्यति
स्याद्वादी तु समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां
जानन्निर्मलशुद्धबोधमहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत्
।।२५३।।
आलिखित = आलेखन किया हुआ; चित्रित; स्पर्शित; ज्ञात
76
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [प्रत्यक्ष-आलिखित-
स्फु ट-स्थिर-परद्रव्य-अस्तिता-वञ्चितः ] प्रत्यक्ष आलिखित ऐसे प्रगट (स्थूल) और स्थिर
(निश्चल) परद्रव्योंके अस्तित्वसे ठगाया हुआ, [स्वद्रव्य अनवलोकनेन परितः शून्यः ] स्वद्रव्यको
(स्वद्रव्यके अस्तित्वको) नहीं देखता होनेसे सम्पूर्णतया शून्य होता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त
होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो, [स्वद्रव्य-अस्तितया निपुणं निरूप्य ] आत्माको
स्वद्रव्यरूपसे अस्तिपनेसे निपुणतया देखता है, इसलिये [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध-बोध-महसा
पूर्णः भवन् ]
तत्काल प्रगट विशुद्ध ज्ञानप्रकाशके द्वारा पूर्ण होता हुआ [जीवति ] जीता है
नाशको प्राप्त नहीं होता
भावार्थ :एकान्ती बाह्य परद्रव्यको प्रत्यक्ष देखकर उसके अस्तित्वको मानता है, परन्तु
अपने आत्मद्रव्यको इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं देखता, इसलिये उसे शून्य मानकर आत्माका नाश करता
है
स्याद्वादी तो ज्ञानरूपी तेजसे अपने आत्माका स्वद्रव्यसे अस्तित्व अवलोकन करता है, इसलिये
जीता हैअपना नाश नहीं करता
इसप्रकार स्वद्रव्य-अपेक्षासे अस्तित्वका (-सत्पनेका) भंग कहा है।२५२।
(अब, छट्ठे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [दुर्वासनावासितः ]
दुर्वासनासे (-कुनयकी वासनासे) वासित होता हुआ, [पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य ] आत्माको
सर्वद्रव्यमय मानकर, [स्वद्रव्य-भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति ] (परद्रव्योंमें) स्वद्रव्यके भ्रमसे

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(शार्दूलविक्रीडित)
भिन्नक्षेत्रनिषण्णबोध्यनियतव्यापारनिष्ठः सदा
सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः
स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्याद्वादवेदी पुन-
स्तिष्ठत्यात्मनिखातबोध्यनियतव्यापारशक्ति र्भवन्
।।२५४।।
परद्रव्योंमें विश्रान्त करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो, [समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां
जानन् ]
समस्त वस्तुओंमें परद्रव्यस्वरूपसे नास्तित्वको जानता हुआ, [निर्मल-शुद्ध-बोध-महिमा ]
जिसकी शुद्धज्ञानमहिमा निर्मल है ऐसा वर्तता हुआ, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत् ] स्वद्रव्यका ही
आश्रय करता है
भावार्थ :एकान्तवादी आत्माको सर्वद्रव्यमय मानकर, आत्मामें जो परद्रव्यकी अपेक्षासे
नास्तित्व है उसका लोप करता है; और स्याद्वादी तो समस्त पदार्थोमें परद्रव्यकी अपेक्षासे नास्तित्व
मानकर निज द्रव्यमें रमता है
इसप्रकार परद्रव्यकी अपेक्षासे नास्तित्वका (असत्पनेका) भंग कहा है।२५३।
(अब, सातवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [भिन्न-क्षेत्र-निषण्ण-
बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठः ] भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयपदार्थोंमें जो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्धरूप निश्चित
व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन् ] आत्माको सम्पूर्णतया
बाहर (परक्षेत्रमें) पड़ता देखकर (
स्वक्षेत्रसे आत्माका अस्तित्व न मानकर) [सदा सीदति एव ]
सदा नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादके जाननेवाले तो [स्वक्षेत्र-अस्तितया
निरुद्ध-रभसः ]
स्वक्षेत्रसे अस्तित्वके कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (अर्थात्
स्वक्षेत्रमें वर्तता हुआ), [आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन् ] आत्मामें ही
आकाररूप हुए ज्ञेयोंमें निश्चित व्यापारकी शक्तिवाला होकर, [तिष्ठति ] टिकता है
जीता है
(नाशको प्राप्त नहीं होता)
भावार्थ :एकान्तवादी भिन्न क्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको जाननेके कार्यमें प्रवृत्त होने
पर आत्माको बाहर पड़ता ही मानकर, (स्वक्षेत्रसे अस्तित्व न मानकर), अपनेको नष्ट करता है;
और स्याद्वादी तो, ‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेयोंको जानता हुआ अपने क्षेत्रमें रहा हुआ आत्मा स्वक्षेत्रसे
अस्तित्व धारण करता है’ ऐसा मानता हुआ टिकता है
नाशको प्राप्त नहीं होता
इसप्रकार स्वक्षेत्रसे अस्तित्वका भंग कहा है।२५४।
(अब, आठवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)

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(शार्दूलविक्रीडित)
स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात्
तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन्
स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्
।।२५५।।
(शार्दूलविक्रीडित)
पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन्
सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः
अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि
।।२५६।।
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [स्वक्षेत्रस्थितये
पृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात् ] स्वक्षेत्रमें रहनेके लिये भिन्न-भिन्न परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय
पदार्थोंको छोड़नेसे, [अर्थैः सह चिद् आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थोंके साथ चैतन्यके आकारोंका
भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंके निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी
छोड़ता हुआ) [तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और
स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना
नास्तित्व जानता हुआ [त्यक्त-अर्थः अपि ] (परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी
[परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थोंमेंसे चैतन्यके आकारोंको खींचता है (अर्थात् ज्ञेयपदार्थोंके
निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [तुच्छताम् अनुभवति न ] इसलिये
तुच्छताको प्राप्त नहीं होता
भावार्थ :‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके आकाररूप चैतन्यके आकार होते हैं, उन्हें
यदि मैं अपना बनाऊँगा तो स्वक्षेत्रमें ही रहनेके स्थान पर परक्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाऊँगा’ ऐसा
मानकर अज्ञानी एकान्तवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको
भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है
और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, परक्षेत्रमें अपने नास्तित्वको जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको
छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता
इसप्रकार परक्षेत्रकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है।२५५।
(अब, नववें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [पूर्व-आलम्बित-

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(शार्दूलविक्रीडित)
अर्थालम्बनकाल एव कलयन् ज्ञानस्य सत्त्वं बहि-
र्ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति
नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुन-
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुंजीभवन्
।।२५७।।
बोध्य-नाश-समये ज्ञानस्य नाशं विदन् ] पूर्वालम्बित ज्ञेय पदार्थोंके नाशके समय ज्ञानका भी नाश
जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी (वस्तु) न जानता
हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्ततुच्छः ] अत्यन्त तुच्छ होता
हुआ [सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य
निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ]
आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [बाह्यवस्तुषु मुहुः
भूत्वा विनश्यत्सु अपि ]
बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाशको प्राप्त होती हैं, फि र भी [पूर्णः तिष्ठति ]
स्वयं पूर्ण रहता है
भावार्थ :पहले जिन ज्ञेय पदार्थोंको जाने थे वे उत्तर कालमें नष्ट हो गये; उन्हें देखकर
एकान्तवादी अपने ज्ञानका भी नाश मानकर अज्ञानी होता हुआ आत्माका नाश करता है और
स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थोके नष्ट होने पर भी, अपना अस्तित्व अपने कालसे ही मानता हुआ नष्ट
नहीं होता
इसप्रकार स्वकालकी अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है।२५६।
(अब, दशवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकान्तवादी, [अर्थ-आलम्बन-काले एव
ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् ] ज्ञेयपदार्थोंके आलम्बन कालमें ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ, [बहिः
ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन-मनसा भ्राम्यन् ]
बाह्य ज्ञेयोंके आलम्बनकी लालसावाले चित्तसे (बाहर)
भ्रमण करता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता
तो [परकालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] पर कालसे आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [आत्म-
निखात-नित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुञ्जीभवन् ]
आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञानके
पुंजरूप वर्तता हुआ [तिष्ठति ] टिकता है
नष्ट नहीं होता
भावार्थ :एकान्तवादी ज्ञेयोंके आलम्बनकालमें ही ज्ञानका सत्पना जानता है, इसलिये
ज्ञेयोंके आलम्बनमें मनको लगाकर बाहर भ्रमण करता हुआ नष्ट हो जाता है स्याद्वादी तो पर
ज्ञेयोंके कालसे अपने नास्तित्वको जानता है, अपने ही कालसे अपने अस्तित्वको जानता है;
इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाशको प्राप्त नहीं होता
इसप्रकार परकालकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है।२५७।

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(शार्दूलविक्रीडित)
विश्रान्तः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु
नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः
सर्वस्मान्नियतस्वभावभवनज्ञानाद्विभक्तो भवन्
स्याद्वादी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः
।।२५८।।
(शार्दूलविक्रीडित)
अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः
सर्वत्राप्यनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति
स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरा-
दारूढः परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः
।।२५९।।
भवन = अस्तित्व; परिणमन
(अब, ग्यारहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [परभाव-भाव-कलनात् ]
परभावोंके भवनको ही जानता है (इसप्रकार परभावसे ही अपना अस्तित्व मानता है,)
इसलिये [नित्यं बहिः-वस्तुषु विश्रान्तः ] सदा बाह्य वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, [स्वभाव-
महिमनि एकान्त-निश्चेतनः ]
(अपने) स्वभावकी महिमामें अत्यन्त निश्चेतन (जड़) वर्तता
हुआ, [नश्यति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [नियत-स्वभाव-
भवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन् ]
(अपने) नियत स्वभावके भवनस्वरूप ज्ञानके कारण
सब (परभावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [सहज-स्पष्टीकृत-प्रत्ययः ] जिसने सहज स्वभावका
प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट
प्रत्यक्षअनुभवरूप किया है ऐसा होता हुआ, [नाशम् एति न ]
नाशको प्राप्त नहीं होता
भावार्थ :एकान्तवादी परभावोंसे ही अपना सत्पना मानता है, इसलिये बाह्य
वस्तुओंमें विश्राम करता हुआ, आत्माका नाश करता है; और स्याद्वादी तो, ज्ञानभाव ज्ञेयाकार
होने पर भी ज्ञानभावका स्वभावसे अस्तित्व जानता हुआ, आत्माका नाश नहीं करता
इसप्रकार स्वभावकी (अपने भावकी) अपेक्षासे अस्तित्वका भंग कहा है।२५८।
(अब, बारहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकान्तवादी, [सर्व-भाव-भवनं आत्मनि

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(शार्दूलविक्रीडित)
प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्ज्ञानांशनानात्मना
निर्ज्ञानात्क्षणभंगसंगपतितः प्रायः पशुर्नश्यति
स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं
टंकोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति
।।२६०।।
क्षणभंग = क्षण-क्षणमें होता हुआ नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता
अध्यास्य शद्ध-स्वभाव-च्युतः ] सर्व भावरूप भवनका आत्मामें अध्यास करके (अर्थात् आत्मा सर्व
ज्ञेय पदार्थोंके भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि
स्वैरं गतभयः क्रीडति ]
किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भयतासे
(निःशंकतया) क्रीड़ा करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ]
अपने स्वभावमें अत्यन्त आरूढ़ होता हुआ, [परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पितः ]
परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावरूपसे नहीं है
ऐसा
जानता होनेसे) निष्कम्प वर्तता हुआ, [विशुद्धः एव लसति ] शुद्ध ही विराजित रहता है
भावार्थ :एकान्तवादी सर्व परभावोंको निजरूप जानकर अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत
होता हुआ सर्वत्र (सर्व परभावोंमें) स्वेच्छाचारितासे निःशंकतया प्रवृत्त होता है; और स्याद्वादी तो,
परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ,
शोभित होता है
इसप्रकार परभावकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है।२५९।
(अब, तेरहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [प्रादुर्भाव-विराम-मुद्रित-
वहत्-ज्ञान-अंश-नाना-आत्मना निर्ज्ञानात् ] उत्पाद-व्ययसे लक्षित ऐसे बहते (परिणमित होते)
हुए ज्ञानके अंशरूप अनेकात्मकताके द्वारा ही (आत्माका) निर्णय अर्थात् ज्ञान करता हुआ,
[क्षणभङ्ग-संग-पतितः ]
क्षणभंगके संगमें पड़ा हुआ, [प्रायः नश्यति ] बहुलतासे नाशको प्राप्त
होता है, [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [चिद्-आत्मना चिद्-वस्तु नित्य-उदितं परिमृशन् ]
चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टंकोत्कीर्ण-घन-स्वभाव-
महिम ज्ञानं भवन् ]
टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव) जिसकी महिमा है ऐसे
ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [जीवति ] जीता है
भावार्थ :एकान्तवादी ज्ञेयोंके आकारानुसार ज्ञानको उत्पन्न और नष्ट होता हुआ देखकर,

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(शार्दूलविक्रीडित)
टंकोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया
वांछत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किंचन
ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं
स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात्
।।२६१।।
अनित्य पर्यायोंके द्वारा आत्माको सर्वथा अनित्य मानता हुआ, अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी
तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न-विनष्ट होता है फि र भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभव करता
हुआ जीता है
नाशको प्राप्त नहीं होता
इसप्रकार नित्यत्वका भंग कहा है।२६०।
(अब, चौदहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [टंकोत्कीर्ण विशुद्धबोध-
विसर-आकार-आत्म-तत्त्व-आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक-आकार
(सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वकी आशासे, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन
वाञ्छति ]
उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ (आत्मतत्त्वको) चाहता है (किन्तु
ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-
अनित्यतां परिमृशन् ]
चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके (
परिणतिके, पर्यायके) क्रम द्वारा उसकी
अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलं आसादयति ]
नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल (
निर्मल) मानता हैअनुभव
करता है
भावार्थ :एकान्तवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकारनित्य प्राप्त करनेकी वाँछासे,
उत्पन्न होनेवाली और नाश होनेवाली चैतन्यपरिणतिसे पृथक् कुछ ज्ञानको चाहता है; परन्तु
परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता
स्याद्वादी तो यह मानता है कि
यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली
चैतन्यपरिणतिके क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है
इसप्रकार अनित्यत्वका भंग कहा गया।२६१।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकांत, अज्ञानसे मूढ़ जीवोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध कर देता
हैसमझा देता है’ इस अर्थका काव्य कहा जाता है :