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हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभवमें आता है
ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं
धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है
भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर
करके प्रतीतिमें लाओ
आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः ] स्थित हुआ
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क्यों कहा जाता है ? ज्ञानमात्र कहनेसे तो अन्य धर्मोंका निषेध समझा जाता है
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(
आत्मा उस ज्ञानके द्वारा प्रसाध्यमान है
जो एक जाननक्रिया है, उस जाननक्रियामात्र भावरूपसे स्वयं ही है, इसलिये) आत्माके ज्ञानमात्रता
है
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शोभायमानपना जिसका लक्षण है ऐसी प्रभुत्वशक्ति
लोकालोकको सत्तामात्र ग्रहण करनेरूपसे) परिणमित ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वदर्शित्वशक्ति
सर्वज्ञत्वशक्ति
उसीप्रकार आत्माकी स्वच्छत्वशक्तिसे उसके उपयोगमें लोकालोकके आकार प्रकाशित होते
हैं
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शक्ति
स्वभावरूप परिणम्यपरिणामकत्वशक्ति
गुण आत्मामें है; उसे अगुरुलघुत्वगुण कहा जाता है
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निष्क्रियत्वशक्ति
होता है ऐसा लोकाकाशके माप जितना मापवाला आत्म-अवयवत्व जिसका लक्षण है ऐसी
नियतप्रदेशत्वशक्ति
परिमाणसे स्थित रहते हैं
है
अनन्तधर्मत्वशक्ति
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यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः
न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [तद् ] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति-
विवर्त-चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमरूप और अक्रमरूपसे वर्तमान विवर्त्तसे (
चैतन्य भाव
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र्मग्ननिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रविशेषतया साधकरूपेण तथा परमप्रकर्षमकरिकाधिरूढ-
[स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य ] स्याद्वादकी अत्यन्त शुद्धिको जानकर, [जिन-नीतिम्
अलङ्घयन्तः ] जिननीतिका (जिनेश्वरदेवके मार्गका) उल्लंघन न करते हुए, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति ]
सत्पुरुष ज्ञानस्वरूप होते हैं
विचार किया जाता है :
च्युत होनेके कारण संसारमें भ्रमण करते हुए, सुनिश्चलतया ग्रहण किये गये
व्यवहारसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके पाकके प्रकर्षकी परम्परासे क्रमशः स्वरूपमें आरोहण कराये
जानेवाले इस आत्माको, अन्तर्मग्न जो निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद हैं उनके साथ तद्रूपताके
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परिणममानं ज्ञानमात्रमेकमेवोपायोपेयभावं साधयति
भवति भूमिकालाभः
अतिशयतासे प्रवर्तित जो सकल कर्मका क्षय उससे प्रज्वलित (देदीप्यमान) हुवे जो अस्खलित
विमल स्वभावभावत्व द्वारा स्वयं सिद्धरूपसे परिणमता ऐसा एक ही ज्ञानमात्र (भाव) उपाय-
उपेयभावको सिद्ध करता है
निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप भेद अन्तर्भूत हैं
ज्ञानका साधक रूपसे परिणमन है
अस्खलित निर्मल स्वभावभाव प्रगट देदीप्यमान हुआ है
प्राप्ति होती है; फि र उसीमें नित्य मस्ती करते हुए (
वे सदा अज्ञानी रहते हुए, ज्ञानमात्र भावका स्वरूपसे अभवन और पररूपसे भवन देखते (
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भूमिं श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः
मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति
यो भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त :
पात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः
हुए, उपाय-उपेयभावसे अत्यन्त भ्रष्ट होते हुए संसारमें परिभ्रमण ही करते हैं
निज भावमय अकम्प भूमिकाका (अर्थात् ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिकाका)
[श्रयन्ति ] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति ] वे साधकत्वको प्राप्त करके
सिद्ध हो जाते हैं; [तु ] परन्तु [मूढाः ] जो मूढ़ (
होते हुए सिद्ध हो जाते हैं; परन्तु जो ज्ञानमात्र
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शुद्धप्रकाशभरनिर्भरसुप्रभातः
स्तस्यैव चायमुदयत्यचलार्चिरात्मा
हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति ] प्रतिदिन अपनेको भाता है (
ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीव्र मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति ] इस
(ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिकाका आश्रय करता है
आश्रय करनेवाला है
विकासरूप जिसका खिलना है (अर्थात् चैतन्यपुंजका अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना
है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः ] शुद्ध प्रकाशकी अतिशयताके कारण जो सुप्रभातके
समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः ] आनन्दमें सुस्थित ऐसा जिसका सदा
अस्खलित एक रूप है [च ] और [अचल-अर्चिः ] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा
उदयति ] यह आत्मा उदयको प्राप्त होता है
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शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयीति
र्नित्योदयः परमयं स्फु रतु स्वभावः
सद्यः प्रणश्यति नयेक्षणखण्डयमानः
मेकान्तशान्तमचलं चिदहं महोऽस्मि
प्रगट होना और ‘अचलार्चि’ विशेषणसे अनन्त वीर्यका प्रगट होना बताया है
है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति ] यह प्रकाश (ज्ञानप्रकाश) जहाँ मुझमें उदयको प्राप्त हुआ है,
वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं ] बंध-मोक्षके मार्गमें पड़नेवाले अन्य भावोंसे
मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फु रतु ] मुझे तो मेरा नित्य उदित
रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फु रायमान हो
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ज्ञेयो ज्ञेयज्ञानमात्रः स नैव
ज्ञानज्ञेयज्ञातृमद्वस्तुमात्रः
किये जाने पर [सद्यः ] तत्काल [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [तस्मात् ] इसलिये मैं ऐसा
अनुभव करता हूँ कि
कर्मोदयका लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम् ] अचल है (अर्थात्
कर्मोदयसे चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद् महः अहम् अस्मि ] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ
हो जाये
करता हूँ और न भावसे खण्डित करता हूँ; सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हूँ
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क्वचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम
परस्परसुसंहतप्रकटशक्ति चक्रं स्फु रत्
वल्गन् ] (परन्तु) ज्ञेयोंके आकारसे होनेवाले ज्ञानकी कल्लोलोंके रूपमें परिणमित होता हुआ वह
[ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः ] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये
अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं ] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई
देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं ] और कभी अमेचक (-एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि ]
तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रं स्फु रत् तत् ] परस्पर सुसंहत (-सुमिलित, सुग्रथित)
प्रगट शक्तियोंके समूहरूपसे स्फु रायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः ] निर्मल बुद्धिवालोंके
मनको [न विमोहयति ] विमोहित (
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मितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदैवोदयात्
रहो सहजमात्मनस्तदिदमद्भुतं वैभवम्
अवस्थामें शुद्धाशुद्ध अनुभवमें आता है; तथापि यथार्थ ज्ञानी स्याद्वादके बलके कारण भ्रमित नहीं
होता, जैसा है वैसा ही मानता है, ज्ञानमात्रसे च्युत नहीं होता
एकताको धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम् ] एक ओरसे देखने पर क्षणभंगुर है और
[इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम् ] एक ओरसे देखने पर सदा उसका उदय होनेसे ध्रुव है,
[इतः परम-विस्तृतम् ] एक ओरसे देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः
धृतम् ] एक ओरसे देखने पर अपने प्रदेशोंसे ही धारण कर रखा हुआ है
सहभावी गुणदृष्टिसे देखने पर ध्रुव; ज्ञानकी अपेक्षावाली सर्वगत दृष्टिसे देखने पर परम
विस्तारको प्राप्त दिखाई देता है और प्रदेशोंकी अपेक्षावाली दृष्टिसे देखने पर अपने प्रदेशोंमें
ही व्याप्त दिखाई देता है
यद्यपि ज्ञानियोंको वस्तुस्वभावमें आश्चर्य नहीं होता फि र भी उन्हें कभी नहीं हुआ ऐसा अद्भुत
परमानन्द होता है, और इसलिए आश्चर्य भी होता है
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भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्ति रप्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः
स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः
प्रसभनियमितार्चिश्चिच्चमत्कार एषः
शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः ] एक ओरसे देखने पर भवकी (-सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती
है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति ] एक ओरसे देखने पर (संसारके अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श
करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फु रति ] एक ओरसे देखने पर तीनों लोक स्फु रायमान होते हैं (
चैतन्य ही शोभित होता है
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न्यनवरतनिमग्नं धारयद् ध्वस्तमोहम्
ज्ज्वलतु विमलपूर्णं निःसपत्नस्वभावम्
केवलज्ञानमें सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो
चैतन्यरूप ज्ञानाकारकी दृष्टिमें एकस्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-
उपलम्भः ] जिसमें निज रसके विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मका
अभाव हो जानेसे जिसमें स्वरूपानुभवनका अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः ] और
जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (अर्थात् जो अनन्तवीर्यसे निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-
चमत्कारः जयति ] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्यचमत्कार जयवन्त वर्तता है
(अर्थात् प्राप्त किये गये स्वभावको कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम् ] जिसने मोहका
(अज्ञानांधकारका) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम् ] जिसका स्वभाव निःसपत्न (
ज्योतिः ] यह उदयको प्राप्त अमृतचन्द्रज्योति (-अमृतमय चन्द्रमाके समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा)
[समन्तात् ज्वलतु ] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो
‘अमृतचन्द्रज्योतिः’ होता है
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रागद्वेषपरिग्रहे सति यतो जातं क्रियाकारकैः
तद्विज्ञानघनौघमग्नमधुना किंचिन्न किंचित्किल
बतलाता है, ‘विमलपूर्ण’ विशेषण लांछनरहितता तथा पूर्णता बतलाता है, ‘निःसपत्नस्वभाव’
विशेषण राहुबिम्बसे तथा बादल आदिसे आच्छादित न होना बतलाता है, और ‘समन्तात् ज्वलतु’
सर्व क्षेत्र और सर्व कालमें प्रकाश करना बतलाता है; चन्द्रमा ऐसा नहीं है
यथासंभव जानने चाहिये
मिश्रितपनारूप भाव हुआ), [यतः अत्र अन्तरं भूतं ] द्वैतभाव होने पर जिससे स्वरूपमें अन्तर पड़
गया (अर्थात् बन्धपर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति ] स्वरूपमें अन्तर
पड़ने पर जिससे रागद्वेषका ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं ] रागद्वेषका ग्रहण होने पर जिससे
क्रियाके कारक उत्पन्न हुए (अर्थात् क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकोंका भेद पड़ गया), [यतः
च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना ] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति
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र्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः
कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः
अब विज्ञानघनके समूहमें मग्न हुआ (अर्थात् ज्ञानरूपमें परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित्
न किञ्चित् ] इसलिए अब वह सब वास्तवमें कुछ भी नहीं है
रहा
व्याख्या (आत्मवस्तुका व्याख्यान अथवा समयप्राभृतशास्त्रकी टीका) [कृता ] की है; [स्वरूप-
गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः ] स्वरूपगुप्त (
वाच्यवाचक सम्बन्ध है
आचार्यदेवने कहा है कि ‘इस समयप्राभृतकी टीका शब्दोंने की है, मैं तो स्वरूपमें लीन हूँ, उसमें
(