Samaysar (Hindi). Gatha: 31-42 ; Kalash: 27-33 ; Jiv-ajiv Adhikar.

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जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ।।३१।।
य इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम
तं खलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताः साधवः ।।३१।।
यः खलु निरवधिबन्धपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वपरविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौश-
लोपलब्धान्तःस्फु टातिसूक्ष्मचित्स्वभावावष्टम्भबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि, प्रति-
विशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खण्डशः आकर्षन्ति प्रतीयमानाखण्डैकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि,
ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छक्तेः स्वयमेवानु-
कर इन्द्रियजय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आत्मको,
निश्चयविषैं स्थित साधुजन भाषैं जितेन्द्रिय उन्हींको
।।३१।।
गाथार्थ :[यः ] जो [इन्द्रियाणि ] इन्द्रियोंको [जित्वा ] जीतकर [ज्ञान-
स्वभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक [आत्मानम् ] आत्माको [जानाति ]
जानता है [तं ] उसे, [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनयमें स्थित साधु हैं [ते ] वे,
[खलु ] वास्तवमें [जितेन्द्रियं ] जितेन्द्रिय [भणन्ति ] कहते हैं
टीका :(जो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंकोतीनोंको
अपनेसे अलग करके समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न अपने आत्माका अनुभव करता है वह मुनि
निश्चयसे जितेन्द्रिय है
) अनादि अमर्यादरूप बन्धपर्यायके वश जिसमें समस्त स्व-परका
विभाग अस्त हो गया है (अर्थात् जो आत्माके साथ ऐसी एकमेक हो रही है कि भेद
दिखाई नहीं देता) ऐसी शरीरपरिणामको प्राप्त द्रव्येन्द्रियोंको तो निर्मल भेदाभ्यासकी प्रवीणतासे
प्राप्त अन्तरङ्गमें प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलम्बनके बलसे सर्वथा अपनेसे अलग
किया; सो वह द्रव्येन्द्रियोंको जीतना हुआ
भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयोंमें व्यापारभावसे
जो विषयोंको खण्डखण्ड ग्रहण करती हैं (ज्ञानको खण्डखण्डरूप बतलाती हैं) ऐसी
भावेन्द्रियोंको, प्रतीतिमें आनेवाली अखण्ड एक चैतन्यशक्तिताके द्वारा सर्वथा अपनेसे भिन्न
जाना; सो यह भावेन्द्रियोंका जीतना हुआ
ग्राह्यग्राहकलक्षणवाले सम्बन्धकी निकटताके कारण
जो अपने संवेदन (अनुभव) के साथ परस्पर एक जैसे हुए दिखाई देते हैं ऐसे, भावेन्द्रियोंके

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भूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन
विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंक रदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षो-
द्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन
सर्वेभ्यो द्रव्यान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका
निश्चयस्तुतिः
अथ भाव्यभावकसंक रदोषपरिहारेण
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ।।३२।।
द्वारा ग्रहण किये हुए, इन्द्रियोंके विषयभूत स्पर्शादि पदार्थोंको, अपनी चैतन्यशक्तिकी स्वयमेव
अनुभवमें आनेवाली असंगताके द्वारा सर्वथा अपनेसे अलग किया; सो यह इन्द्रियोंके
विषयभूत पदार्थोंका जीतना हुआ
इसप्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके
विषयभूत पदार्थोंको (तीनोंको) जीतकर, ज्ञेयज्ञायक-संकर नामक दोष आता था सो सब दूर
होनेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभावके द्वारा सर्व अन्यद्रव्योंसे परमार्थसे भिन्न ऐसे
अपने आत्माका अनुभव करता है वह निश्चयसे जितेन्द्रिय जिन है
(ज्ञानस्वभाव अन्य
अचेतन द्रव्योंमें नहीं है, इसलिए उसके द्वारा आत्मा सबसे अधिक, भिन्न ही है ) कैसा
है यह ज्ञानस्वभाव ? इस विश्वके (समस्त पदार्थोंके) ऊ पर तिरता हुआ (उन्हें जानता हुआ
भी उनरूप न होता हुआ), प्रत्यक्ष उद्योतपनेसे सदा अन्तरङ्गमें प्रकाशमान, अविनश्वर,
स्वतःसिद्ध और परमार्थसत्
ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है ।।३१।।
इसप्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई
(ज्ञेयकाद्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंका और
ज्ञायकस्वरूप स्वयं आत्माकाउन दोनोंका अनुभव, विषयोंकी आसक्तिसे, एकसा था; जब
भेदज्ञानसे भिन्नत्व ज्ञात किया तब वह ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहाँ जानना )
अब, भाव्यभावक-संकरदोष दूर करके स्तुति कहते हैं :
कर मोहजय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आतमा,
परमार्थ-विज्ञायक पुरुषने उन हि जितमोही कहा
।।३२।।

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यो मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम
तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३२।।
यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो
भाव्यस्य व्यावर्तनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसंक रदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं
विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन
परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यान्तरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थ-
तोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकाय-
सूत्राण्येकादश पंचानां श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणामिन्द्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्या-
तत्वाद्वयाख्येयानि
अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
गाथार्थ :[यः तु ] जो मुनि [मोहं ] मोहको [जित्वा ] जीतकर [आत्मानम् ] अपने
आत्माको [ज्ञानस्वभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यभावोंसे अधिक [जानाति ] जानता है
[तं साधुं ] उस मुनिको [परमार्थविज्ञायकाः ] परमार्थके जाननेवाले [जितमोहं ] जितमोह
[ब्रुवन्ति ] कहते हैं
टीका :मोहकर्म फल देनेकी सामर्थ्यसे प्रगट उदयरूप होकर भावकपनेसे प्रगट होता
है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्मा भाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा
दूरसे ही अलग करनेसे इसप्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक-
संकरदोष दूर हो जानेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण (निश्चल) और ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्योंके
स्वभावोंसे होनेवाले सर्व अन्यभावोंसे परमार्थतः भिन्न अपने आत्माका जो (मुनि) अनुभव करता
है वह निश्चयसे जितमोह (जिसने मोहको जीता है ऐसा) जिन हैं
कैसा है वह ज्ञानस्वभाव ?
इस समस्त लोकके उपर तिरता हुआ, प्रत्यक्ष उद्योतरूपसे सदैव अन्तरङ्गमें प्रकाशमान, अविनाशी,
अपनेसे ही सिद्ध और परमार्थसत् ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है
इसप्रकार भाव्यभावक भावके संकरदोषको दूर करके दूसरी निश्चयस्तुति है
इस गाथासूत्रमें एक मोहका ही नाम लिया है; उसमें ‘मोह’ पदको बदलकर उसके
स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय रखकर ग्यारह
सूत्र व्याख्यानरूप करना और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन तथा स्पर्शन
इन पांचके सूत्रोंको
इन्द्रियसूत्रके द्वारा अलग व्याख्यानरूप करना; इसप्रकार सोलह सूत्रोंको भिन्न-भिन्न

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अथ भाव्यभावकभावाभावेन
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हवेज्ज साहुस्स
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ।।३३।।
जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ।।३३।।
इह खलु पूर्वप्रक्रान्तेन विधानेनात्मनो मोहं न्यक्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावातिरिक्ता-
त्मसंचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टम्भात्तत्सन्तानात्यन्तविनाशेन
पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णं
व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे अन्य भी विचार लेना
भावार्थ :भावक मोहके अनुसार प्रवृत्ति करनेसे अपना आत्मा भाव्यरूप होता है उसे
भेदज्ञानके बलसे भिन्न अनुभव करनेवाला जितमोह जिन है यहाँ ऐसा आशय है कि श्रेणी चढ़ते
हुए जिसे मोहका उदय अनुभवमें न रहे और जो अपने बलसे उपशमादि करके आत्मानुभव करता
है उसे जितमोह कहा है
यहाँ मोहको जीता है; उसका नाश नहीं हुआ ।।३२।।
अब, भाव्यभावक भावके अभावसे निश्चयस्तुति बतलाते हैं :
जितमोह साधु पुरुषका जब मोह क्षय हो जाय है,
परमार्थविज्ञायक पुरुष क्षीणमोह तब उनको कहे
।।३३।।
गाथार्थ :[जितमोहस्य तु साधोः ] जिसने मोहको जीत लिया है ऐसे साधुके [यदा ]
जब [क्षीणः मोहः ] मोह क्षीण होकर सत्तामेंसे नष्ट [भवेत् ] हाे [तदा ] तब [निश्चयविद्भिः ]
निश्चयके जाननेवाले [खलु ] निश्चयसे [सः ] उस साधुको [क्षीणमोहः ] ‘क्षीणमोह’ नामसे
[भण्यते ] कहते हैं
टीका :इस निश्चयस्तुतिमें, पूर्वोक्त विधानसे आत्मामेंसे मोहका तिरस्कार करके,
पूर्वोक्त ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्यसे अधिक आत्माका अनुभव करनेसे जो जितमोह हुआ है,
उसे जब अपने स्वभावभावकी भावनाका भलीभांति अवलम्बन करनेसे मोहकी संततिका ऐसा
आत्यन्तिक विनाश हो कि फि र उसका उदय न हो
इसप्रकार भावकरूप मोह क्षीण हो, तब
(भावक मोहका क्षय होनेसे आत्माके विभावरूप भाव्यभावका भी अभाव होता है, और

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परमात्मानमवाप्तः क्षीणमोहो जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र-
चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोर्निश्चया-
न्नुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः
स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे-
न्नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्मांगयोः
।।२७।।
इसप्रकार) भाव्यभावक भावका अभाव होनेसे एकत्व होनेसे टंकोत्कीर्ण (निश्चल) परमात्माको
प्राप्त हुआ वह ‘क्षीणमोह जिन’ कहलाता है
यह तीसरी निश्चयस्तुति है
यहाँ भी पूर्व कथनानुसार ‘मोह’ पदको बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ,
कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शइन पदोंको रखकर सोलह
सूत्रोंका व्याख्यान करना और इसप्रकारके उपदेशसे अन्य भी विचार लेना
भावार्थ :साधु पहले अपने बलसे उपशम भावके द्वारा मोहको जीतकर, फि र जब
अपनी महा सामर्थ्यसे मोहको सत्तामेंसे नष्ट करके ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है तब
वह क्षीणमोह जिन कहलाता है
।।३३।।
अब यहाँ इस निश्चय-व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं ] शरीर और आत्माके व्यवहारनयसे
एकत्व है, [तु पुनः ] किन्तु [ निश्चयात् न ] निश्चयनयसे नहीं है; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं
व्यवहारतः अस्ति ]
इसलिए शरीरके स्तवनसे आत्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुआ
कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न ] निश्चयनयसे नहीं; [निश्चयतः ] निश्चयसे तो [चित्स्तुत्या एव ]
चैतन्यके स्तवनसे ही [चितः स्तोत्रं भवति ] चैतन्यका स्तवन होता है
[सा एवं भवेत् ] उस
चैतन्यका स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोहइत्यादिरूपसे कहा वैसा है [अतः
तीर्थकरस्तवोत्तरबलात् ] अज्ञानीने तीर्थंकरके स्तवनका जो प्रश्न किया था उसका इसप्रकार
नयविभागसे उत्तर दिया है; जिसके बलसे यह सिद्ध हुआ कि [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न ]
आत्मा और शरीरमें निश्चयसे एकत्व नहीं है
।२७।

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(मालिनी)
इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम
अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फु टन्नेक एव
।।२८।।
इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः
एवमयमनादिमोहसन्ताननिरूपितात्मशरीरैकत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धोऽपि प्रसभोज्जृम्भित-
10
अब फि र, इस अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है इस अर्थका सूचक काव्य
कहते हैं :
श्लोकार्थ :[परिचित-तत्त्वैः ] जिन्होंने वस्तुके यथार्थ स्वरूपको परिचयरूप किया
है ऐसे मुनियोंने [आत्म-काय-एकतायां ] जब आत्मा और शरीरके एकत्वको [इति नय-
विभजन-युक्त्या ]
इसप्रकार नयविभागको युक्तिके द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम् ] जड़मूलसे
उखाड़ फें का है
उसका अत्यन्त निषेध किया है, तब अपने [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फु टन्
एकः एव ] निजरसके वेगसे आकृष्ट हो प्रगट होनेवाले एक स्वरूप होकर [कस्य ] किस
पुरुषको वह [बोधः ] ज्ञान [अद्य एव ] तत्काल ही [बोधं ] यथार्थपनेको [न अवतरति ] प्राप्त
न होगा ? अवश्य ही होगा
भावार्थ :निश्चयव्यवहारनयके विभागसे आत्मा और परका अत्यन्त भेद बताया है;
उसे जानकर, ऐसा कौन पुरुष है जिसे भेदज्ञान न हो ? होता ही है; क्योंकि जब ज्ञान अपने
स्वरससे स्वयं अपने स्वरूपको जानता है, तब अवश्य ही वह ज्ञान अपने आत्माको परसे भिन्न
ही बतलाता है
कोई दीर्घसंसारी ही हो तो उसकी यहाँ कोई बात नहीं है ।२८।
इसप्रकार, अप्रतिबुद्धने जो यह कहाँ था कि‘‘हमारा तो यह निश्चय है कि शरीर
ही आत्मा है’’, उसका निराकरण किया
इसप्रकार यह अज्ञानी जीव अनादिकालीन मोहके संतानसे निरूपित आत्मा और शरीरके
एकत्वके संस्कारसे अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था वह अब तत्त्वज्ञानस्वरूप ज्योतिका प्रगट उदय होनेसे
और नेत्रके विकारीकी भान्ति (जैसे किसी पुरुषकी आँखोंमें विकार था तब उसे वर्णादिक
अन्यथा दीखते थे और जब नेत्रविकार दूर हो गया तब वे ज्योंके त्यों
यथार्थ दिखाई देने
लगे, इसीप्रकार) पटल समान आवरणकर्मोंके भलीभान्ति उघड़ जानेसे प्रतिबुद्ध हो गया और

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तत्त्वज्ञानज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः (?) साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयमेव
हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितुकामः स्वात्मारामस्यास्यान्यद्रव्याणां प्रत्याख्यानं किं स्यादिति
पृच्छन्नित्थं वाच्यः
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ।।३४।।
सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा
तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम।।३४।।
यतो हि द्रव्यान्तरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभाव-
भावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे, ततो य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे,
साक्षात् द्रष्टा आपको अपनेसे ही जानकर तथा श्रद्धान करके, उसीका आचरण करनेका इच्छुक
होता हुआ पूछता है कि ‘इस स्वात्मारामको अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान (त्यागना) क्या है ?’
उसको आचार्य इसप्रकार कहते हैं कि :
सब भाव पर ही जान प्रत्याख्यान भावोंका करे,
इससे नियमसे जानना कि ज्ञान प्रत्याख्यान है
।।३४।।
गाथार्थ :[यस्मात् ] जिससे [सर्वान् भावान् ] ‘अपनेसे अतिरिक्त सर्व पदार्थ
[परान् ] पर हैं ’ [इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [प्रत्याख्याति ] प्रत्याख्यान करता हैत्याग
करता है, [तस्मात् ] इसलिये, [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [ज्ञानं ] ज्ञान ही है [नियमात् ] ऐसा
नियमसे [ज्ञातव्यम् ] जानना
अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ
नहीं
टीका :यह भगवान ज्ञाता-द्रव्य (आत्मा) है वह अन्यद्रव्यके स्वभावसे होनेवाले
अन्य समस्त परभावोंको, वे अपने स्वभावभावसे व्याप्त न होनेसे पररूप जानकर, त्याग देता
है; इसलिए जो पहले जानता है वही बादमें त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला
नहीं है
इसप्रकार आत्मामें निश्चय करके, प्रत्याख्यानके (त्यागके) समय प्रत्याख्यान करने
योग्य परभावकी उपाधिमात्रसे प्रवर्तमान त्यागके कर्तृत्वका नाम (आत्माको) होने पर भी,
परमार्थसे देखा जाये तो परभावके त्यागकर्तृत्वका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे

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न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकर्तृत्वव्यपदेशत्वेऽपि
परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात
् प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम
अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत आह
जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि
तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी ।।३५।।
यथा नाम कोऽपि पुरुषः परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति
तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुञ्चति ज्ञानी ।।३५।।
यथा हि कश्चित्पुरुषः सम्भ्रान्त्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपत्त्या परिधाय
रहित है, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे स्वयं छूटा नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही हैऐसा
अनुभव करना चाहिए
भावार्थ :आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है वह नाममात्र है वह स्वयं तो
ज्ञानस्वभाव है परद्रव्यको पर जाना, और फि र परभावका ग्रहण न करना वही त्याग है इसप्रकार,
स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञानके अतिरिक्त कोई दूसरा भाव नहीं है ।।३४।।
अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञाताका प्रत्याख्यान ज्ञान ही कहा है, तो उसका
दृष्टान्त क्या है ? उसके उत्तरमें दृष्टान्त-दार्ष्टान्तरूप गाथा कहते हैं :
ये और का है जानकर परद्रव्यको को नर तजे,
त्यों औरके हैं जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे
।।३५।।
गाथार्थ :[यथा नाम ] जैसे लोकमें [कः अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [परद्रव्यम् इदम्
इति ज्ञात्वा ] परवस्तुको ‘यह परवस्तु है’ ऐसा जाने तो ऐसा जानकर [त्यजति ] परवस्तुका त्याग
करता है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [सर्वान् ] समस्त [परभावान् ] परद्रव्योंके
भावोंको [ज्ञात्वा ] ‘यह परभाव है’ ऐसा जानकर [विमुञ्चति ] उनको छोड़ देता है
टीका :जिसप्रकारकोई पुरुष धोबीके घरसे भ्रमवश दूसरेका वस्त्र लाकर, उसे
अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी (यह वस्त्र दूसरेका है ऐसे
ज्ञानसे रहित) हो रहा है; (किन्तु) जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्रका छोर (पल्ला) पकड़कर खींचता

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शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालम्ब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो मंक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय
परिवर्तितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति
ज्ञात्वा ज्ञानी सन
् मुंचति तच्चीवरमचिरात्, तथा ज्ञातापि सम्भ्रान्त्या परकीयान्भावा-
नादायात्मीयप्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वैकीक्रियमाणो
मंक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः खल्वयमात्मेत्यसकृच्छ्रौतं वाक्यं शृण्वन्नखिलैश्चिह्नैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते
परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन
् मुंचति सर्वान्परभावानचिरात
(मालिनी)
अवतरति न यावद् वृत्तिमत्यन्तवेगा-
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः
झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव
।।२९।।
है और उसे नग्न कर कहता है कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदलेमें आ गया
है, यह मेरा है सो मुझे दे दे’, तब बारम्बार कहे गये इस वाक्यको सुनता हुआ वह, (उस वस्त्रके)
सर्व चिह्नोंसे भलीभान्ति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह वस्त्र दूसरेका ही है’ ऐसा जानकर , ज्ञानी
होता हुआ, उस (दूसरेके) वस्त्रको शीघ्र ही त्याग देता है
इसीप्रकारज्ञाता भी भ्रमवश
परद्रव्योंके भावोंको ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपनेमें एकरूप करके सो रहा है और
अपने आप अज्ञानी हो रहा है ; जब श्री गुरु परभावका विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक
आत्मभावरूप करते हैं और कहते हैं कि ‘तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तवमें
एक (ज्ञानमात्र) ही है, (अन्य सर्व परद्रव्यके भाव हैं )’, तब बारम्बार कहे गये इस आगमके
वाक्यको सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-परके) चिह्नोंसे भलीभांति परीक्षा करके, ‘अवश्य यह
परभाव ही हैं, (मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ)’ यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावोंको शीघ्र
छोड़ देता है
भावार्थ :जब तक परवस्तुको भूलसे अपनी समझता है तब तक ममत्व रहता है; और
जब यथार्थ ज्ञान होनेसे परवस्तुको दूसरेकी जानता है तब दूसरेकी वस्तुमें ममत्व कैसे रहेगा ?
अर्थात् नहीं रहे यह प्रसिद्ध है
।।३५।।
अब इसी अर्थका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अपर-भाव-त्याग-दृष्टान्त-दृष्टिः ] यह परभावके त्यागके दृष्टान्तकी दृष्टि,

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अथ कथमनुभूतेः परभावविवेको भूत इत्याशंक्य भावकभावविवेकप्रकारमाह
णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३६।।
नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेकः
तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३६।।
इह खलु फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गलद्रव्येणाभिनिर्वर्त्य-
[अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति ] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यन्त वेगसे जब
तक प्रवृत्तिको प्राप्त न हो, [तावत् ] उससे पूर्व ही [झटिति ] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः
विमुक्ता ]
सकल अन्यभावोंसे रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः ] स्वयं ही यह अनुभूति तो
[आविर्बभूव ] प्रगट हो गई
भावार्थ :यह परभावके त्यागका दृष्टान्त कहा उस पर दृष्टि पड़े उससे पूर्व, समस्त
अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभव तो तत्काल हो गया; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि
वस्तुको परकी जान लेनेके बाद ममत्व नहीं रहता
।२९।
अब, ‘इस अनुभूतिसे परभावका भेदज्ञान कैसे हुआ ?’ ऐसी आशंका करके, पहले तो
जो भावकभावमोहकर्मके उदयरूप भाव, उसके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं :
कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक मैं,
इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके मोहनिर्ममता कहे ।।३६।।
गाथार्थ :[बुध्यते ] जो यह जाने कि [मोहः मम कः अपि नास्ति ] ‘मोह मेरा कोई
भी (सम्बन्धी) नहीं है, [एकः उपयोगः एव अहम् ] एक उपयोग ही मैं हूँ[तं ] ऐसे जाननेको
[समयस्य ] सिद्धान्तके अथवा स्वपरस्वरूपके [विज्ञायकाः ] जाननेवाले [मोहनिर्ममत्वं ] मोहसे
निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
टीका :निश्चयसे, (यह मेरे अनुभवमें) फलदानकी सामर्थ्यसे प्रगट होकर
इस गाथाका दूसरा अर्थ यह भी है कि :‘किंचित्मात्र मोह मेरा नहीं है, मैं एक हूँ’ ऐसा उपयोग ही
(आत्मा ही) जाने, उस उपयोगको (आत्माको) समयके जाननेवाले मोहके प्रति निर्मम (ममता रहित)
कहते हैं

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मानष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थतः परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोऽपि न नाम
मम मोहोऽस्ति
किंचैतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसंपदा चिच्छक्तिमात्रेण
स्वभावभावेन भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्पर-
साधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वात
् मज्जितावस्थायामपि दधिखण्डावस्थायामिव परिस्फु टस्वद-
मानस्वादभेदतया मोहं प्रति निर्ममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात
इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः
भावक रूप होनेवाले पुद्गलद्रव्यसे रचित मोह मेरा कुछ भी नहीं लगता, क्योंकि टंकोत्कीर्ण
एक ज्ञायकस्वभावभावका परमार्थसे परके भाव द्वारा
भाना अशक्य है और यहाँ स्वयमेव,
विश्वको (समस्त वस्तुओंको) प्रकाशित करनेमें चतुर और विकासरूप ऐसी जिसकी निरन्तर
शाश्वती प्रतापसम्पदा है ऐसे चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभावके द्वारा, भगवान आत्मा ही जानता
है कि
परमार्थसे मैं एक हूँ इसलिए, यद्यपि समस्त द्रव्योंके परस्पर साधारण अवगाहका
(एकक्षेत्रावगाहका) निवारण करना अशक्य होनेसे मेरा आत्मा और जड़, श्रीखण्डकी भांति,
एकमेक हो रहे हैं तथापि, श्रीखण्डकी भांति, स्पष्ट अनुभवमें आनेवाले स्वादके भेदके कारण,
मैं मोहके प्रति निर्मम ही हूँ; क्योंकि सदैव अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ
अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्योंका त्यों ही स्थित रहता है
(दही और शक्कर मिलानेसे श्रीखंड
बनता है उसमें दही और शक्कर एक जैसे मालूम होते हैं तथापि प्रगटरूप खट्टे-मीठे स्वादके
भेदसे भिन्न-भिन्न जाने जाते हैं; इसीप्रकार द्रव्योंके लक्षणभेदसे जड़-चेतनके भिन्न-भिन्न
स्वादके कारण ज्ञात होता है कि मोहकर्मके उदयका स्वाद रागादिक है वह चैतन्यके
निजस्वभावके स्वादसे भिन्न ही है
) इसप्रकार भावकभाव जो मोहका उदय उससे भेदज्ञान
हुआ
भावार्थ :यह मोहकर्म जड़ पुद्गलद्रव्य है; उसका उदय कलुष (मलिन)
भावरूप है; वह भाव भी, मोहकर्मका भाव होनेसे, पुद्गलका ही विकार है यह भावकका
भाव जब इस चैतन्यके उपयोगके अनुभवमें आता है तब उपयोग भी विकारी होकर
रागादिरूप मलिन दिखाई देता है
जब उसका भेदज्ञान हो कि ‘चैतन्यकी शक्तिकी व्यक्ति
तो ज्ञानदर्शनोपयोगमात्र है और यह कलुषता रागद्वेषमोहरूप है, वह द्रव्यकर्मरूप जड़
पुद्गलद्रव्यकी है’, तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहका भाव उससे अवश्य भेदभाव
होता है और आत्मा अवश्य अपने चैतन्यके अनुभवरूप स्थित होता है
।।३६।।
भाना = भाव्यरूप करना; बनाना

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(स्वागता)
सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं
चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम
नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः
शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि
।।३०।।
एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्र-
चक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि
अथ ज्ञेयभावविवेकप्रकारमाह
णत्थि मम धम्मआदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को
तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।।३७।।
अब इस अर्थका द्योतक कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस लोकमें [अहं ] मैं [स्वयं ] स्वतः ही [एकं स्वं ] अपने
एक आत्मस्वरूपका [चेतये ] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं ] कि जो
स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्यके परिणमनसे पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये
[मोहः ] य्ाह मोह [मम ] मेरा [कश्चन नास्ति नास्ति ] कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका
और मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है
[शुद्ध-चिद्-घन-महः-निधिः अस्मि ] मैं तो शुद्ध
चैतन्यके समूहरूप तेजःपुंजका निधि हूँ (भावकभावके भेदसे ऐसा अनुभव करे ) ।३०।
इसीप्रकार गाथामें जो ‘मोह’ पद है उसे बदलकर, राग, द्वेष, क्रोध, मान,
माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनइन
सोलह पदोंके भिन्न-भिन्न सोलह गाथासूत्र व्याख्यान करना; और इसी उपदेशसे अन्य भी
विचार लेना
अब ज्ञेयभावके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं :
धर्मादि वे मेरे नहीं, उपयोग केवल एक हूँ,
इस ज्ञानको, ज्ञायक समयके धर्मनिर्ममता कहे ।।३७।।

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नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ।।३७।।
अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि स्वरसविजृम्भितानिवारितप्रसरविश्व-
घस्मरप्रचण्डचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यन्तमन्तर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टंकोत्कीर्णैकज्ञायक-
स्वभावत्वेन तत्त्वतोऽन्तस्तत्त्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुम-
शक्यत्वान्न नाम मम सन्ति
किंचैतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमनाकुलमात्मानं
कलयन् भगवानात्मैवावबुध्यते यत्किलाहं खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतर-
संवलनेऽपि परिस्फु टस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवान्तराणि प्रति
इस गाथाका अर्थ ऐसा भी होता है :‘धर्म आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं एक हूँ’ ऐसा उपयोग ही
जाने, उस उपयोगको समयके जाननेवाले धर्म प्रति निर्मम कहते हैं
गाथार्थ :[बुध्यते ] यह जाने कि [धर्मादिः ] ‘यह धर्म आदि द्रव्य [मम नास्ति ]
मेरे कुछ भी नहीं लगते, [एकः उपयोगः एव ] एक उपयोग ही [अहम् ] मैं हूँ[तं ] ऐसा
जाननेको [समयस्य विज्ञायकाः ] सिद्धान्तके अथवा स्वपरके स्वरूपरूप समयके जाननेवाले
[धर्मनिर्ममत्वं ] धर्मद्रव्यके प्रति निर्ममत्व [ब्रुवन्ति ] कहते हैं
टीका :अपने निजरससे जो प्रगट हुई है, जिसका विस्तार अनिवार है तथा समस्त
पदार्थोंको ग्रसित करनेका जिसका स्वभाव है ऐसी प्रचण्ड चिन्मात्र शक्तिके द्वारा ग्रासीभूत किये
जानेसे, मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों
ज्ञानमें तदाकार होकर डूब रहे हों इसप्रकार आत्मामें
प्रकाशमान यह धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवये समस्त परद्रव्य मेरे
सम्बन्धी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्वसे परमार्थतः अन्तरङ्गतत्त्व तो मैं हूँ और
वे परद्रव्य मेरे स्वभावसे भिन्न स्वभाववाले होनेसे परमार्थतः बाह्यतत्त्वरूपताको छोड़नेके लिये
असमर्थ हैं (क्योंकि वे अपने स्वभावका अभाव करके ज्ञानमें प्रविष्ट नहीं होते)
और यहाँ
स्वयमेव, (चैतन्यमें) नित्य उपयुक्त और परमार्थसे एक, अनाकुल आत्माका अनुभव करता हुआ
भगवान आत्मा ही जानता है कि
मैं प्रगट निश्चयसे एक ही हूँ इसलिए, ज्ञेयज्ञायकभावमात्रसे
उत्पन्न परद्रव्योंके साथ परस्पर मिलन होने पर भी, प्रगट स्वादमें आनेवाले स्वभावके भेदके कारण
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवोंके प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने
एकत्वमें प्राप्त होनेसे समय (आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है;
(अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता)
इसप्रकार ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान हुआ ।।३७।।

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निर्ममत्वोऽस्मि, सर्वदैवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात इतीत्थं ज्ञेयभावविवेको भूतः
(मालिनी)
इति सति सह सर्वैरन्यभावैर्विवेके
स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकम
प्रकटितपरमार्थैर्दर्शनज्ञानवृत्तैः
कृतपरिणतिरात्माराम एव प्रवृत्तः
।।३१।।
अथैवं दर्शनज्ञानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः कीद्र् स्वरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुप-
संहरति
अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ।।३८।।
11
यहाँ इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति ] इसप्रकार पूर्वोक्तरूपसे भावक भाव और ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान होने
पर [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति ] सर्व अन्यभावोंसे जब भिन्नता हुई तब [अयं उपयोगः ]
यह उपयोग [स्वयं ] स्वयं ही [एकं आत्मानम् ] अपने एक आत्माको ही [बिभ्रत् ] धारण करता
हुआ, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः ] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे
दर्शनज्ञानचारित्रसे जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः ] अपने आत्मारूपी बाग
(क्रीड़ावन)में ही प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता
भावार्थ :सर्व परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना तब उपयोगको
रमणके लिये अपना आत्मा ही रहा, अन्य ठिकाना नहीं रहा इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रके साथ
एकरूप हुआ वह आत्मामें ही रमण करता है ऐसा जानना ।३१।
अब, इसप्रकार दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत इस आत्माको स्वरूपका संचेतन कैसा होता
है यह कहते हुए आचार्य इस कथनको समेटते हैं :
मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे !
।।३८।।

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अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी
नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि ।।३८।।
यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यन्तमप्रतिबुद्धः सन् निर्विण्णेन गुरुणानवरतं प्रति-
बोध्यमानः कथंचनापि प्रतिबुध्य निजकरतलविन्यस्तविस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वर-
मात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सम्यगेकात्मारामो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्रं
ज्योतिः, समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिकभावैः चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेकः, नारकादि-
जीवविशेषाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्त्वेभ्यः टंकोत्कीर्णैकज्ञायक-
स्वभावभावेनात्यन्तविविक्तत्वात् शुद्धः, चिन्मात्रतया सामान्यविशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणाद्दर्शन-
ज्ञानमयः, स्पर्शरसगन्धवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतत्वेऽपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिणमनात् परमार्थतः
सदैवारूपी, इति प्रत्यगयं स्वरूपं संचेतयमानः प्रतपामि
एवं प्रतपतश्च मम बहिर्विचित्र-
गाथार्थ :दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणत आत्मा यह जानता है कि[खलु ] निश्चयसे
[अहम् ] मैं [एकः ] एक हूँ, [शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [दर्शनज्ञानमयः ] दर्शनज्ञानमय हूँ, [सदा
अरूपी ]
सदा अरूपी हूँ; [किंचित् अपि अन्यत् ] किंचित्मात्र भी अन्य परद्रव्य [परमाणुमात्रम्
अपि ]
परमाणुमात्र भी [मम न अपि अस्ति ] मेरा नहीं है यह निश्चय है
टीका :जो, अनादि मोहरूप अज्ञानसे उन्मत्तताके कारण अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था
और विरक्त गुरुसे निरन्तर समझाये जाने पर जो किसी प्रकारसे समझकर, सावधान होकर,
जैसे कोई (पुरुष) मुट्ठीमें रखे हुए सोनेको भूल गया हो और फि र स्मरण करके उस सोनेको
देखे इस न्यायसे, अपने परमेश्वर (सर्व सामर्थ्यके धारक) आत्माको भूल गया था उसे
जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके (
उसमें तन्मय होकर) जो सम्यक्
प्रकारसे एक आत्माराम हुआ, वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ किमैं चैतन्यमात्र ज्योतिरूप
आत्मा हूँ कि जो मेरे ही अनुभवसे प्रत्यक्ष ज्ञात होता है; चिन्मात्र आकारके कारण मैं समस्त
क्रमरूप तथा अक्रमरूप प्रवर्तमान व्यावहारिक भावोंसे भेदरूप नहीं होता, इसलिये मैं एक हूँ;
नारक आदि जीवके विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षस्वरूप
जो व्यावहारिक नव तत्त्व हैं उनसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावरूप भावके द्वारा, अत्यन्त
भिन्न हूँ, इसलिये मैं शुद्ध हूँ; चिन्मात्र होनेसे सामान्य-विशेष उपयोगात्मकताका उल्लंघन नहीं
करता, इसलिये मैं दर्शनज्ञानमय हूँ; स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जिसका निमित्त है ऐसे संवेदनरूप
परिणमित होने पर भी स्पर्शादिरूप स्वयं परिणमित नहीं हुआ, इसलिये परमार्थसे मैं सदा ही

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स्वरूपसम्पदा विश्वे परिस्फु रत्यपि न किंचनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति
यद्भावकत्वेन ज्ञेयत्वेन चैकीभूय भूयो मोहमुद्भावयति, स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं
मोहमुन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फु रितत्वात
(वसन्ततिलका)
मज्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः
अरूपी हूँ इसप्रकार सबसे भिन्न ऐसे स्वरूपका अनुभव करता हुआ यह मैं प्रतापवन्त रहा
इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए ऐसे मुझे, यद्यपि (मुझसे) बाह्य अनेक प्रकारकी स्वरूप-
सम्पदाके द्वारा समस्त परद्रव्य स्फु रायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप
भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूपसे मेरे साथ होकर पुनः मोह उत्पन्न करें;
क्योंकि निजरससे ही मोहको मूलसे उखाड़कर
पुनः अंकुरित न हो इसप्रकार नाश करके,
महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है
भावार्थ :आत्मा अनादि कालसे मोहके उदयसे अज्ञानी था, वह श्री गुरुओंके
उपदेशसे और स्व-काललब्धिसे ज्ञानी हुआ तथा अपने स्वरूपको परमार्थसे जाना कि मैं एक
हूँ, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ
ऐसा जाननेसे मोहका समूल नाश हो गया, भावकभाव
और ज्ञेयभावसे भेदज्ञान हुआ, अपनी स्वरूपसंपदा अनुभवमें आई; तब फि र पुनः मोह कैसे
उत्पन्न हो सकता है ? नहीं हो सकता
।।३८।।
अब, ऐसा जो आत्मानुभव हुआ उसकी महिमा कहकर आचार्यदेव प्रेरणारूप काव्य
कहते हैं किऐसे ज्ञानस्वरूप आत्मामें समस्त लोक निमग्न हो जाओ :
श्लोकार्थ :[एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः ] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-
तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य ]िवभ्रमरूपी आड़ी चादरको समूलतया डूबोकर (दूर करके)
[प्रोन्मग्नः ] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः ] इसलिये अब यह समस्त लोक
[शान्तरसे ] उसके शान्त रसमें [समम् एव ] एक साथ ही [निर्भरम् ] अत्यन्त [मज्जन्तु ] मग्न
हो जाओ, कि जो शान्त रस [आलोकम् उच्छलति ] समस्त लोक पर्यन्त उछल रहा है
भावार्थ :जैसे समुद्रके आड़े कुछ आ जाये तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह
आड़ दूर हो जाती है तब जल प्रगट होता है; वह प्रगट होने पर, लोगोंको प्रेरणा योग्य होता
है कि ‘इस जलमें सभी लोग स्नान करो’; इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रमसे आच्छादित था तब

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आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणीं भरेण
प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः
।।३२।।
उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था; अब विभ्रम दूर हो जानेसे यथास्वरूप (ज्योंका त्यों
स्वरूप) प्रगट हो गया; इसलिए ‘अब उसके वीतराग विज्ञानरूप शान्तरसमें एक ही साथ सर्व
लोक मग्न होओ’ इसप्रकार आचार्यदेवने प्रेरणा की है
अथवा इसका अर्थ यह भी है कि जब
आत्माका अज्ञान दूर होता है तब केवलज्ञान प्रगट होता है और केवलज्ञान प्रगट होने पर समस्त
लोकमें रहनेवाले पदार्थ एक ही समय ज्ञानमें झलकते हैं उसे समस्त लोक देखो
।३२।
इसप्रकार इस समयप्राभृतग्रन्थकी आत्मख्याति नामक टीकामें टीकाकारने पूर्वरङ्गस्थल
कहा
यहाँ टीकाकारका यह आशय है कि इस ग्रन्थको अलङ्कारसे नाटकरूपमें वर्णन किया है
नाटकमें पहले रङ्गभूमि रची जाती है वहाँ देखनेवाले नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाटय,
नाटक) करनेवाले होते हैं जो विविध प्रकारके स्वांग रचते हैं तथा श्रृङ्गारादिक आठ रसोंका रूप
दिखलाते हैं
वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुणा, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुतयह आठ
रस लौकिक रस हैं; नाटकमें इन्हींका अधिकार है नववाँ शान्तरस है जो कि अलौकिक है; नृत्यमें
उसका अधिकार नहीं है इन रसोंके स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, अनुभावी भाव, व्यभिचारी भाव
और उनकी दृष्टि आदिका वर्णन रसग्रन्थोंमें है वहाँसे जान लेना सामान्यतया रसका यह स्वरूप
है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय आया उसमें ज्ञान तदाकार हो जाय, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाय और
अन्य ज्ञेयकी इच्छा नहीं रहे सो रस है
उन आठ रसोंका रूप नृत्यमें नृत्यकार बतलाते हैं; और
उनका वर्णन करते हुए कवीश्वर जब अन्य रसको अन्य रसके समान कर भी वर्णन करते हैं तब
अन्य रसका अन्य रस अङ्गभूत होनेसे तथा अन्यभाव रसोंका अङ्ग होनेसे, रसवत् आदि अलङ्कारसे
उसे नृत्यरूपमें वर्णन किया जाता है
यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा वहाँ देखनेवाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और अन्य
मिथ्यादृष्टि पुरुषोंकी सभा है, उनको दिखलाते हैं नृत्य करनेवाले जीव-अजीव पदार्थ हैं और
दोनोंका एकपना, कर्ताकर्मपना आदि उनके स्वांग हैं उनमें वे परस्पर अनेकरूप होते हैं,
आठ रसरूप होकर परिणमन करते हैं, सो वह नृत्य है वहाँ सम्यग्दृष्टि दर्शक जीव-अजीवके
भिन्न स्वरूपको जानता है; वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शान्त रसमें ही मग्न
है और मिथ्यादृष्टि जीव-अजीवका भेद नहीं जानते, इसलिये वे इन स्वांगोंको ही यथार्थ जानकर
उसमें लीन हो जाते हैं
उन्हें सम्यग्दृष्टि यथार्थ स्वरूप बतलाकर, उनका भ्रम मिटाकर, उन्हें

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इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ पूर्वरंगः समाप्तः
शान्तरसमें लीन करके सम्यग्दृष्टि बनाता है उसकी सूचनारूपमें रंगभूमिके अन्तमें आचार्यने
‘मज्जन्तु’ इत्यादि इस श्लोककी रचना की है वह, अब जीव-अजीवके स्वांगका वर्णन करेंगे
इसका सूचक है ऐसा आशय प्रगट होता है इसप्रकार यहाँ तक रंगभूमिका वर्णन किया है
नत्यकुतूहल तत्त्वको, मरियवि देखो धाय
निजानन्दरसमें छको, आन सबै छिटकाय ।।
इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्रीसमयसार परमागमकी (श्रीमद्
अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) आत्मख्याति नामक टीकामें पूर्वरङ्ग समाप्त हुआ

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अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः
(शार्दूलविक्रीडित)
जीवाजीवविवेकपुष्कलद्रशा प्रत्याययत्पार्षदान
आसंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फु टत
आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं
धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत
।।३३।।
- -
जीव - अजीव अधिकार
अब जीवद्रव्य और अजीवद्रव्यवे दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं
इसके प्रारम्भमें मंगलके आशयसे (काव्य द्वारा) आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते हैं कि
सर्व वस्तुओंको जाननेवाला यह ज्ञान है वह जीव-अजीवके सर्व स्वांगोंको भलीभान्ति पहिचानता
है
ऐसा (सभी स्वांगोंको जाननेवाला) सम्यग्ज्ञान प्रगट होता हैइस अर्थरूप काव्य क हते हैं :
श्लोकार्थ :[ज्ञानं ] ज्ञान है वह [मनो ह्लादयत् ] मनको आनन्दरूप करता हुआ
[विलसति ] प्रगट होता है वह [पार्षदान् ] जीव-अजीवके स्वांगको देखनेवाले महापुरुषोंको
[जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा ] जीव-अजीवके भेदको देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष
दृष्टिके द्वारा [प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है
[आसंसार-निबद्ध-बन्धन
-विधि-ध्वंसात् ] अनादि संसारसे जिनका बन्धन दृढ़ बन्धा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके
नाशसे [विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [स्फु टत् ] स्फु ट हुआ है
जैसे फू लकी कली खिलती है
उसीप्रकार विकासरूप है और [आत्म-आरामम् ] उसका रमण करनेका क्रीड़ावन आत्मा ही है,
अर्थात् उसमें अनन्त ज्ञेयोंके आकार आ कर झलकते हैं तथापि वह स्वयं अपने स्वरूपमें ही रमता
है; [अनन्तधाम ] उसका प्रकाश अनन्त है; और वह [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे
नित्य उदयरूप है
तथा वह [धीरोदात्तम् ] धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसीलिए [अनाकुलं ]
अनाकुल हैसर्व इच्छाओंसे रहित निराकुल है
(यहाँ धीर, उदात्त, अनाकुलयह तीन

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अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति ।।३९।।
अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ।।४०।।
कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति
तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ।।४१।।
जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ।।४२।।
विशेषण शान्तरूप नृत्यके आभूषण जानना ) ऐसा ज्ञान विलास करता है
भावार्थ :यह ज्ञानकी महिमा कही जीव-अजीव एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते
हैं उन्हें यह ज्ञान ही भिन्न जानता है जैसे नृत्यमें कोई स्वांग धरकर आये और उसे जो यथार्थरूपमें
जान ले (पहिचान ले) तो वह स्वांगकर्ता उसे नमस्कार करके अपने रूपको जैसा का तैसा ही
कर लेता है उसीप्रकार यहाँ भी समझना
ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको होता है; मिथ्यादृष्टि इस
भेदको नहीं जानते ।३३।
अब जीव-अजीवका एकरूप वर्णन करते हैं :
को मूढ़, आत्म-अजान जो, पर-आत्मवादी जीव है,
‘है कर्म, अध्यवसान ही जीव’ यों हि वो कथनी करे
।।३९।।
अरु कोई अध्यवसानमें अनुभाग तीक्षण-मन्द जो,
उसको ही माने आतमा, अरु अन्य को नोकर्मको !
।।४०।।
को अन्य माने आतमा बस कर्मके ही उदयको,
को तीव्रमन्दगुणों सहित कर्मोंहिके अनुभागको !
।।४१।।
को कर्म-आत्मा उभय मिलकर जीवकी आशा धरे,
को कर्मके संयोगसे अभिलाष आत्माकी करें
।।४२।।