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सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
अनुभूतिसे भिन्न है
अनुभूतिसे भिन्न है
हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न
है
क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
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परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
रायोपशमकक्षपकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकक्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलि-
लक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे
सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्
भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः
तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी
नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेकं परं स्यात्
जिनके लक्षण हैं ऐसे जो जीवस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके
परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है
जो गुणस्थान वे सर्व ही जीवके नहीं हैं, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी)
अनुभूतिसे भिन्न हैं
[भिन्नाः ] भिन्न हैं, [तेन एव ] इसलिये [अन्तःतत्त्वतः पश्यतः ] अन्तर्दृष्टिसे देखनेवालेको [अमी
नो दृष्टाः स्युः ] यह सब दिखाई नहीं देते, [एकं परं दृष्टं स्यात् ] मात्र एक सर्वोपरि तत्त्व ही दिखाई
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पर कोई भी ये भाव नहिं हैं जीवके निश्चयविषैं
सूत्रमें कहे गये हैं), [तु ] किन्तु [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके मतमें [केचित् न ] उनमेंसे कोई
भी जीवके नहीं हैं
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परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति
अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र भी दूसरेका नहीं कहता, निषेध
करता है
[तानि ] वे [तस्य तु न भवन्ति ] उस जीवके नहीं हैं, [यस्मात् ] क्योंकि जीव [उपयोगगुणाधिकः ]
उनसे उपयोगगुणसे अधिक है (
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स्यास्यात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे सम्बन्धे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोग-
गुणव्याप्यतया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धा-
भावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति
सम्बन्ध न होनेसे, निश्चयसे जल दूधका नहीं है; इसप्रकार
स्वलक्षणभूत उपयोगगुणके द्वारा व्याप्त होनेसे आत्मा सर्व द्रव्योंसे अधिकपनेसे प्रतीत होता है;
इसलिये, जैसा अग्निका उष्णताके साथ तादात्म्यस्वरूप सम्बन्ध है वैसा वर्णादिके साथ आत्माका
सम्बन्ध नहीं है इसलिये, निश्चयसे वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्माके नहीं हैं
जिनवर कहे व्यवहारसे ‘यह वर्ण है इस जीवका’
भूतार्थद्रष्टा पुरुषने व्यवहारनयसे वर्णये
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तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितंकर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण
इति व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य
जीवस्य कश्चिदपि वर्णोऽस्ति
व्यवहारीजन [भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई
मार्ग तो [न च मुष्यते ] नहीं लुटता, मार्गमें जाता हुआ मनुष्य ही लुटता है; [तथा ] इसप्रकार
[जीवे ] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च ] कर्मोंका और नोकर्मोंका [वर्णम् ] वर्ण [दृष्टवा ] देखकर
‘[जीवस्य ] जीवका [एषः वर्णः ] यह वर्ण है’ इसप्रकार [जिनैः ] जिनेन्द्रदेवने [व्यवहारतः ]
व्यवहारसे [उक्त : ] कहा है
[निश्चयद्रष्टारः ] निश्चयके देखनेवाले [व्यपदिशन्ति ] कहते हैं
हैं, तथापि निश्चयसे देखा जाये तो, जो आकाशके अमुक भागस्वरूप है ऐसा कोई मार्ग तो
नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अरहन्तदेव, जीवमें बन्धपर्यायसे स्थितिको प्राप्त (रहा हुआ)
कर्म और नोकर्मका वर्ण देखकर, (कर्म-नोकर्मके) वर्णकी (बन्धपर्यायसे) जीवमें स्थिति
होनेसे उसका उपचार करके, ‘जीवका यह वर्ण है ऐसा व्यवहारसे प्रगट करते हैं, तथापि
निश्चयसे, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोगगुणके द्वारा अन्यद्रव्योंसे अधिक
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संक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवहारतोऽर्हद्देवानां प्रज्ञापनेऽपि
निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति, तादात्म्य-
लक्षणसम्बन्धाभावात्
अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान,
विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान
उपयोग गुणके द्वारा अन्यसे अधिक है ऐसे जीवके वे सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावोंके
और जीवके तादात्म्यलक्षण सम्बन्धका अभाव है
है
द्रव्यको भिन्न, पर्यायोंसे अभेदरूप, उसके असाधारण गुणमात्रको प्रधान करके कहा जाता है
तब परस्पर द्रव्योंका निमित्त-नैमित्तिकभाव तथा निमित्तसे होनेवाली पर्यायें
परमार्थका भी लोप हो जायेगा
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संबंधः स्यात्; संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्ति-
शून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्य भवतो वर्णाद्यात्म-
संसारसे परिमुक्तके नहिं भाव को वर्णादिके
जीवोंके [खलु ] निश्चयसे [वर्णादयः के चित् ] वर्णादिक कोई भी (भाव) [न सन्ति ] नहीं है;
(इसलिये तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है)
उसका उनके साथ तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध होता है
तादात्म्यसम्बन्ध होता है
सम्बन्ध है; और यद्यपि संसार-अवस्थामें कथंचित् वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त होता है तथा
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व्याप्तिसे रहित होता है और वर्णादिस्वरूपतासे व्याप्त नहीं होता ऐसे जीवका वर्णादिभावोंके साथ
किसी भी प्रकारसे तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध नहीं है
जीवका वर्णादिभावोंके साथ तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है यह बात न्यायप्राप्त है
तो जीव और अजीवमें कुछ भेद तुझ रहता नहीं !
वर्णादिक सर्व भाव [जीवः एव हि ] जीव ही हैं, [तु ] तो [ते ] तुम्हारे मतमें [जीवस्य च
अजीवस्य ] जीव और अजीवका [कश्चित् ] कोई [विशेषः ] भेद [नास्ति ] नहीं रहता
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भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति
यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणा-
ज्जीवपुद्गलयोरविशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः
उन-उन व्यक्तियोंके द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुए, जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य
प्रसिद्ध करते हैं, विस्तारते हैं
पर, पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है
ही हो जाये यह महादोष आता है
संसारस्थित सब जीवगण पाये तदा रूपित्वको
अरु मोक्षप्राप्त हुआ भि पुद्गलद्रव्य जीव बने अरे !
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जीवो भवति, न पुनरितरः कतरोऽपि
[तस्मात् ] तो इस कारणसे [संसारस्थाः जीवाः ] संसारमें स्थित जीव [रूपित्वम् आपन्नाः ]
रूपित्वको प्राप्त हुये; [एवं ] ऐसा होने पर, [तथालक्षणेन ] वैसा लक्षण (अर्थात् रूपित्वलक्षण)
तो पुद्गलद्रव्यका होनेसे, [मूढमते ] हे मूढबुद्धि ! [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य ही [जीवः ] जीव
कहलाया [च ] और (मात्र संसार-अवस्थामें ही नहीं किन्तु) [निर्वाणम् उपगतः अपि ] निर्वाण
प्राप्त होने पर भी [पुद्गलः ] पुद्गल ही [जीवत्वं ] जीवत्वको [प्राप्तः ] प्राप्त हुआ !
होता है; और रूपित्व तो किसी द्रव्यका, शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसा लक्षण है
ऐसा द्रव्य सभी अवस्थाओंमें हानि अथवा ह्रासको न प्राप्त होनेसे अनादि-अनन्त होता है
भी), पुद्गलोंसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे, जीवका अवश्य अभाव होता है
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पुद्गलद्रव्य ही जीवद्रव्य सिद्ध हुआ, उसके अतिरिक्त कोई चैतन्यरूप जीवद्रव्य नहीं रहा
कोई चैतन्यरूप जीव नहीं रहा
पर्याप्त-अनपर्याप्त जीव जु नामकर्मकी प्रकृति हैं
उससे रचित जीवस्थान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे ?
[जीवाः ] जीव
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पर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव, न तु जीवः
ज्जीवस्थानैरेवोक्तानि
तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत्
[करणभूताभिः ] करणस्वरूप होकर [निर्वृत्तानि ] रचित [जीवस्थानानि ] जो जीवस्थान
(जीवसमास) हैं वे [जीवः ] जीव [कथं ] कैसे [भण्यते ] कहे जा सकते हैं ?
त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त और अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्मकी प्रकृतियोंसे
किये जाते होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं
आदि तो मूर्तिक भाव हैं वे कर्मप्रकृतियोंके कार्य हैं, इसलिये कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं ऐसा
अनुमान हो सकता है
पर, इन सबको भी पुद्गलमय ही कथित समझना चाहिये
है; [इह ] जैसे जगतमें [रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं ] स्वर्णनिर्मित म्यानको [रुक्मं पश्यन्ति ] लोग
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पश्यन्ति रुक्मं न कथंचनासिम्
निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य
यतः स विज्ञानघनस्ततोऽन्यः
[विदन्तु ] जानो; [ततः ] इसलिये [इदं ] यह भाव [पुद्गलः एव अस्तु ] पुद्गल ही हों, [न
आत्मा ] आत्मा न हों; [यतः ] क्योंकि [सः विज्ञानघनः ] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञानका पुंज
है, [ततः ] इसलिये [अन्यः ] वह इन वर्णादिक भावोंसे अन्य ही है
व्यवहारसे कही जीवसंज्ञा देहको शास्त्रन महीं
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इति तत्प्रसिद्धया कुम्भे घृतकुम्भव्यवहारः, तथास्याज्ञानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य
शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान् जीवः स ज्ञानमयो, न वर्णादिमय इति
तत्प्रसिद्धया जीवे वर्णादिमद्वयवहारः
[सूत्रे ] सूत्रमें [व्यवहारतः ] व्यवहारसे [उक्ताः ] कही हैं
मिट्टीमय है, घीमय नहीं’’ इसप्रकार (समझानेवालेके द्वारा) घड़ेमें ‘घीका घड़े’का व्यवहार किया
जाता है, क्योंकि उस पुरुषको ‘घीका घड़ा’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोकको
अनादि संसारसे लेकर ‘अशुद्ध जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, वह शुद्ध जीवको नहीं जानता, उसे
समझानेके लिये (
है, क्योंकि उस अज्ञानी लोकको ‘वर्णादिमान् जीव’ ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हैं
वर्णादिमय नहीं है (-ज्ञानघन ही है)
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पुद्गल एव, न तु जीवः
इत्यादिके साथ एकक्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धवाले जीवको सूत्रमें व्यवहारसे ‘पंचेन्द्रिय जीव, पर्याप्त
जीव, बादर जीव, देव जीव, मनुष्य जीव’ इत्यादि कहा गया है तथापि निश्चयसे जीव उस-स्वरूप
नहीं है; वर्ण, पर्याप्ति, इन्द्रियाँ इत्यादि पुद्गलस्वरूप हैं, जीव ज्ञानस्वरूप है
वे क्यों बने आत्मा, निरन्तर जो अचेतन जिन कहे ?
है; [तानि ] वे [जीवाः ] जीव [कथं ] कैसे [भवन्ति ] हो सकते हैं [यानि ] कि जो [नित्यं ]
सदा [अचेतनानि ] अचेतन [उक्तानि ] कहे गये हैं ?
होनेवाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं इसी न्यायसे, वे पुद्गल ही हैं
भिन्नपनेसे वे गुणस्थान भेदज्ञानियोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिये भी उनका सदा ही
अचेतनत्व सिद्ध होता है
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कर्मपूर्वकत्वे सति, नित्यमचेतनत्वात्, पुद्गल एव, न तु जीव इति स्वयमायातम्
विशुद्धिस्थान और संयमलब्धिस्थान भी पुद्गलकर्मपूर्वक होते होनेसे, सदा ही अचेतन होनेसे,
पुद्गल ही हैं
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नामूर्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः
व्यक्तं व्यंजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्ब्यताम्
अमूर्तत्वका आश्रय लेकर भी (अर्थात् अमूर्तत्वको जीवका लक्षण मानकर भी) [जीवस्य तत्त्वं ]
जीवके यथार्थ स्वरूपको [जगत् न पश्यति ] जगत् नहीं देख सकता;
अतिव्याप्ति दूषणोंसे रहित [चैतन्यम् ] चेतनत्वको जीवका लक्षण कहा है [समुचितं ] वह योग्य
है
मानने पर भी अव्याप्ति नामक दोष आता है, क्योंकि सिद्ध जीवोंमें वे भाव व्यवहारसे भी व्याप्त
नहीं होते
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ज्ञानी जनोऽनुभवति स्वयमुल्लसन्तम्
मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटीति
वर्णादिमान्नटति पुद्गल एव नान्यः
चैतन्यधातुमयमूर्तिरय च जीवः
आश्रय ग्रहण करनेसे जीवके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हो सकता है
(-स्वतन्त्रपने, जीवसे भिन्नपने) विलसित हुआ
अयं मोहः तु ] अमर्यादरूपसे फै ला हुआ यह मोह (अर्थात् स्व-परके एकत्वकी भ्रान्ति) [कथम्
नानटीति ] क्यों नाचता है
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जीवाजीवौ स्फु टविघटनं नैव यावत्प्रयातः
ज्ञातृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुच्चैश्चकाशे
है, [न अन्यः ] अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञानमें पुद्गल ही अनेक प्रकारका दिखाई देता है, जीव
तो अनेक प्रकारका नहीं है;) [च ] और [अयं जीवः ] यह जीव तो [रागादि-पुद्गल-विकार-
विरुद्ध-शुद्ध-चैतन्यधातुमय-मूर्तिः ] रागादिक पुद्गल-विकारोंसे विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय
मूर्ति है
दोनाें [स्फु ट-विघटनं न एव प्रयातः ] प्रगटरूपसे अलग नहीं हुए, [तावत् ] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्य ]
ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त -चिन्मात्रशक्त्या ] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट
चिन्मात्रशक्तिसे [विश्वं व्याप्य ] विश्वको व्याप्त करके, [स्वयम् ] अपने आप ही [अतिरसात् ]
अति वेगसे [उच्चैः ] उग्रतया अर्थात् आत्यन्तिकरूपसे [चकाशे ] प्रकाशित हो उठा
जाननेका उसका स्वभाव है; इसलिये यह कहा कि वह विश्वको जानता है