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न तथोत्पद्यते च, किन्तु प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमन्तर्व्यापकं
जाननेवाला ज्ञानी’ ऐसा कहा है
नहीं ? इसका उत्तर कहते हैं :
परद्रव्यपर्यायों न प्रणमे, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे
और [न उत्पद्यते ] उस
परिणामको, अपने परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य
स्वयं परद्रव्यके परिणाममें अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसे ग्रहण नहीं
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निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं
चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः
व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसहौ नित्यमत्यन्तभेदात्
विज्ञानार्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमुत्पाद्य सद्यः
निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला अपने स्वभावरूप कर्म (कर्ताका कार्य), उसमें (वह
पुद्गलद्रव्य) स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर, उसीको ग्रहण करता है,
उसीरूप परिणमित होता है और उसी-रूप उत्पन्न होता है; इसलिये जीवके परिणामको, अपने
परिणामको और अपने परिणामके फलको न जानता हुआ ऐसा पुद्गलद्रव्य प्राप्य, विकार्य और
निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे नहीं करता होनेसे, उस
पुद्गलद्रव्यको जीवके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है
कर्ताकर्मभाव नहीं है
तथा परकी परिणतिको न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात् ] इसप्रकार उनमें सदा
अत्यन्त भेद होनेसे (दोनों भिन्न द्रव्य होनेसे), [अन्तः ] वे दोनों परस्पर अन्तरङ्गमें
[व्याप्तृव्याप्यत्वम् ] व्याप्यव्यापकभावको [कलयितुम् असहौ ] प्राप्त होनेमें असमर्थ हैं
[तावत् भाति ] वहाँ तक भासित होती है कि [यावत् ] जहाँ तक [विज्ञानार्चिः ] (भेदज्ञान
करनेवाली) विज्ञानज्योति [क्रकचवत् अदयं ] करवत्की भाँति निर्दयतासे (उग्रतासे) [सद्यः भेदम्
उत्पाद्य ] जीव-पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके [न चकास्ति ] प्रकाशित नहीं होती
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व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोऽपि जीवपरिणामानां कर्तृ-
कर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभवनेनैव द्वयोरपि
परिणामः; ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य
कर्ता कदाचित्स्यात्, मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात्पुद्गलभावानां तु
कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः
[पुद्गलकर्मनिमित्तं ] पुद्गलकर्मके निमित्तसे [परिणमति ] परिणमन करता है
[जीवगुणान् ] जीवके गुणोंको नहीं करता; [तु ] परन्तु [अन्योऽन्यनिमित्तेन ] परस्पर निमित्तसे
[द्वयोः अपि ] दोनोंके [परिणामं ] परिणाम [जानीहि ] जानो
परन्तु [पुद्गलकर्मकृतानां ] पुद्गलकर्मसे किये गये [सर्वभावानाम् ] समस्त भावोंका [कर्ता न ]
कर्ता नहीं है
व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे जीवको पुद्गलपरिणामोंके साथ और पुद्गलकर्मको
जीवपरिणामोंके साथ कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्त-नैमित्तिकभावका निषेध न होनेसे,
अन्योन्य निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंके परिणाम (होते) हैं; इसलिये, जैसे मिट्टी द्वारा घड़ा किया
जाता है उसीप्रकार अपने भावसे अपना भाव किया जाता है इसलिये, जीव अपने भावका कर्ता
कदाचित् है, परन्तु जैसे मिट्टीसे कपड़ा नहीं किया जा सकता उसीप्रकार अपने भावसे परभावका
किया जाना अशक्य है, इसलिए (जीव) पुद्गलभावोंका कर्ता तो कदापि नहीं है यह निश्चय है
नहीं है
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निस्तरंगावस्थे व्याप्योत्तरंग निस्तरंग त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्,
यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग
त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत्, तथा ससंसारनिःसंसारावस्थयोः
अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना
[तं च एव आत्मानम् ] अपनेको ही [वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य ! तू [जानीहि ] जान
असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर उत्तरङ्ग अथवा निस्तरङ्ग ऐसा अपनेको करता हुआ स्वयं एकको
ही करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फि र
जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
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सिद्धौ जीव एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं
निःसंसारं वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्, तथायमेव च भाव्यभावक-
भावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसारं वात्मानमनुभवन्नात्मानमेक-
मेवानुभवन् प्रतिभातु, मा पुनरन्यत्
करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता;
इसीप्रकार ससंसार और निःसंसार अवस्थाओंको पुद्गलकर्मके विपाकका
असिद्धि है इसलिये, जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर ससंसार अथवा निःसंसार अवस्थामें
आदि-मध्य-अन्तमें व्याप्त होकर ससंसार अथवा निःसंसार ऐसा अपनेको करता हुआ, अपनेको
एकको ही करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित न हो; और फि र
उसीप्रकार यही जीव, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका परके द्वारा अनुभव अशक्य
है इसलिये, ससंसार अथवा निःसंसाररूप अपनेको अनुभव करता हुआ, अपनेको एकको ही
अनुभव करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु अन्यको अनुभव करता हुआ प्रतिभासित न हो
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तृप्तिं भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति
तावद् व्यवहारः, तथान्तर्व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमाणे भाव्यभावकभावेन
पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसम्भवानुकूलं परिणामं
कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसम्पादितविषयसन्निधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणतिं भाव्यभावकभावेना-
नुभवंश्च जीवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोऽस्ति तावद् व्यवहारः
और [तद् एव ] उसी [अनेकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्मको [वेदयते ]
भोगता है
उत्पत्तिमें अनुकूल ऐसे (इच्छारूप और हाथ आदिकी क्रियारूप अपने) व्यापारको करता हुआ
तथा घड़ेके द्वारा किये गये पानीके उपयोगसे उत्पन्न तृप्तिको (अपने तृप्तिभावको)
भाव्यभावकभावके द्वारा अनुभव करता हुआ
कर्मको करता है और भाव्यभावकभावसे पुद्गलद्रव्य ही कर्मको भोगता है तथापि, बाह्यमें
व्याप्यव्यापकभावसे अज्ञानके कारण पुद्गलकर्मके होनेमें अनुकूल (अपने रागादिक) परिणामको
करता हुआ और पुद्गलकर्मके विपाकसे उत्पन्न हुई विषयोंकी निकटतासे उत्पन्न (अपनी)
सुखदुःखरूप परिणतिको भाव्यभावकभावके द्वारा अनुभव करता हुआ
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पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है
है कि जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है
[द्विक्रियाव्यतिरिक्त : ] दो क्रियाओंसे अभिन्न [प्रसजति ] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है
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यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा
व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं
स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेका-
त्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमतः स्यात्
जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव
करता है
अभिन्नताका प्रसंग आने पर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त (नाश) हो जानेसे, अनेकद्रव्यस्वरूप
एक आत्माको अनुभव करता हुआ मिथ्यादृष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है
मत नहीं है
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मात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति, न पुनः कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वव्यापारानुरूपं
मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकाया अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया
क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति, तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्म-
परिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः
प्रतिभातु, मा पुनः पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं
पुद्गलादव्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभातु
[मिथ्यादृष्टयः ] मिथ्यादृष्टि [भवन्ति ] हैं
वे मिथ्यादृष्टि ही हैं ऐसा सिद्धान्त है
अपने परिणामको
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[या परिणतिः सा क्रिया ] जो परिणति है सो क्रिया है; [त्रयम् अपि ] य्ाह तीनों ही, [वस्तुतया
भिन्नं न ] वस्तुरूपसे भिन्न नहीं हैं
कहा गया है कि कर्ता, कर्म और क्रिया
एककी ही होती है) और [एकस्य परिणतिः स्यात् ] एककी ही परिणति
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र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः
तत्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः
स्यात् ] दो द्रव्योंकी एक परिणति
एक द्रव्यकी दो क्रियाएँ नहीं होती; [यतः ] क्योंकि [एकम् अनेकं न स्यात् ] एक द्रव्य अनेक
द्रव्यरूप नहीं होता
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अहंकाररूप अज्ञानान्धकार
[तत् एकवारं विलयं व्रजेत् ] वह एक बार भी नाशको प्राप्त हो [तत् ] तो [ज्ञानघनस्य आत्मनः ]
ज्ञानघन आत्माको [भूयः ] पुनः [बन्धनम् किं भवेत् ] बन्धन कैसे हो सकता है ? (जीव ज्ञानघन
है, इसलिये यथार्थ ज्ञान होनेके बाद ज्ञान कहाँ जा सकता है ? नहीं जाता
पुनः मिथ्यात्व न आये
जानना चाहिये
जो [आत्मनः भावाः ] अपने भाव हैं सो तो [आत्मा एव ] आप ही है और जो [परस्य ते ] परके
भाव हैं सो [परः एव ] पर ही है (यह नियम है)
साथ विरोध आता है; और यदि उन्हें पुद्गलके परिणाम कहे जाये तो जिनके साथ जीवको कोई
प्रयोजन नहीं है उनका फल जीव क्यों प्राप्त करे ? इस आशंकाको दूर करनेके लिये अब गाथा
कहते हैं :
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भाव्यमाना मुकुरन्द एव, तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजीवेन
भाव्यमाना अजीव एव, तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण
[क्रोधाद्याः ] क्रोधादि कषाय
हैं
स्वच्छताके विकारमात्रसे दर्पणके द्वारा भाये जाते हैं वे दर्पण ही हैं; इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान,
अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीवके अपने द्रव्यस्वभावसे अजीवके द्वारा भाये जाते हैं वे अजीव
ही हैं और मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि चैतन्यके विकारमात्रसे जीवके द्वारा
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मिथ्यात्वादि अजीव है; और कर्मके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमित होता है वे विभाव
परिणाम चेतनके विकार हैं, इसलिये वे जीव हैं
समझता है
[अज्ञानम् ] अज्ञान, [अविरतिः ] अविरति और [मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [जीवः ] जीव है [तु ]
वह तो [उपयोगः ] उपयोग है
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विकारः
है वह मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्य परिणामका विकार है
[अज्ञानम् ] अज्ञान [च अविरतिभावः ] और अविरतिभाव (ऐसे तीन) [ज्ञातव्यः ] जानना
चाहिये
होनेसे, आत्माके उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरतिके भेदसे तीन प्रकारका
परिणामविकार है
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पीत इति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टः, तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिस्वभाव-
वस्त्वन्तरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टव्यः
करनेमें) सामर्थ्य होने पर भी, कदाचित् (स्फ टिकको) काले, हरे और पीले ऐसे तमाल, केल
और सोनेके पात्ररूपी आधारका संयोग होनेसे, स्फ टिककी स्वच्छताका, काला, हरा और पीला
ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार दिखाई देता है, उसीप्रकार (आत्माको) अनादिसे मिथ्यादर्शन,
अज्ञान और अविरति जिसका स्वभाव है ऐसे अन्य-वस्तुभूत मोहका संयोग होनेसे, आत्माके
उपयोगका, मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार समझना चाहिये
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भावत्वेनैकविधोऽप्यशुद्धसांजनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्व-
मुपढौकमानो विकारेण परिणम्य यं यं भावमात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात्
कर्ता [भवति ] होता है
निमित्तसे (
होकर जिस-जिस भावको अपना करता है उस-उस भावका वह उपयोग कर्ता होता है
कर्ता कहा है
कर्ता कहा जाता है
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सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बाध्यन्ते
विषव्याप्तयो, विडम्ब्यन्ते योषितो, ध्वंस्यन्ते बन्धाः, तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावेनात्मना
परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात्, तस्मिंस्तु मिथ्यादर्शनादौ भावे स्वानुकूलतया
निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमन्तरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते
पर [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [स्वयं ] अपने आप [कर्मत्वं ] कर्मरूप [परिणमते ] परिणमित
होता है
परिणमित होता है
(साधकके साधनेयोग्य भावोंको) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, साधकके कर्ता हुए बिना
(सर्पादिकका) व्याप्त विष स्वयमेव उतर जाता है, स्त्रियाँ स्वयमेव विडम्बनाको प्राप्त होती हैं
और बन्धन स्वयमेव टूट जाते हैं; इसीप्रकार यह आत्मा अज्ञानके कारण मिथ्यादर्शनादिभावरूप
स्वयं ही परिणमित होता हुआ मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता है और वह मिथ्यादर्शनादिभाव
पुद्गलद्रव्यको (कर्मरूप परिणमित होनेमें) अनुकूल होनेसे निमित्तमात्र होने पर, आत्माके कर्ता
हुए बिना पुद्गलद्रव्य मोहनीयादि कर्मरूप स्वयमेव परिणमित होते हैं
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शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यन्तभिन्नायास्त-
न्निमित्ततथाविधानुभवस्य चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यन्तभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषा-
निर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणेवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादि-
अज्ञानमय जीव [कर्मणां ] कर्मोंका [कारकः ] कर्ता [भवति ] होता है
कर्ता प्रतिभासित होता है
भिन्न है और उसके निमित्तसे होनेवाला उस प्रकारका अनुभव आत्मासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे
सदा ही अत्यन्त भिन्न है, इसीप्रकार ऐसा अनुभव करानेमें समर्थ ऐसी रागद्वेषसुखदुःखादिरूप
पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे अभिन्नताके कारण आत्मासे सदा ही अत्यन्त भिन्न है और