Samaysar (Hindi). Kalash: 5-16 ; Gatha: 13-16.

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(मालिनी)
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या-
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित
।।५।।
भावार्थ :जिनवचन (जिनवाणी) स्याद्वादरूप है जहां दो नयोंके विषयका विरोध
हैजैसे कि : जो सत्रूप होता है वह असत्रूप नहीं होता है, जो एक होता है वह अनेक
नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता,
जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयोंके विषयमें विरोध है
वहाँ जिनवचन कथंचित्
विवक्षासे सत्-असत्रूप, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप
जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता
वह जिनवचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकइन दोनों नयोंमें, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयको
मुख्य करके उसे निश्चय कहता है और अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयको गौण कर उसे
व्यवहार कहता है
ऐसे जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ प्राप्त
कर लेते हैं; अन्य सर्वथा-एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा
एकान्त पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना
करते हैं
जो असत्यार्थ है, बाधा सहित मिथ्या दृष्टि है ।४।
इसप्रकार इन बारह गाथाओंमें पीठिका (भूमिका) है
अब आचार्य शुद्धनयको प्रधान करके निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं अशुद्धनयकी
(व्यवहारनयकी) प्रधानतामें जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है, जब कि यहाँ उन
जीवादि तत्त्वोंको शुद्धनयके द्वारा जाननेसे सम्यक्त्व होता है, यह कहते हैं
टीकाकार इसकी
सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं, उनमेंसे प्रथम श्लोकमें यह कहते हैं कि व्यवहारनयको कथंचित्
प्रयोजनवान कहा तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है :
श्लोकार्थ :[व्यवहरण-नयः ] जो व्यवहारनय है वह [यद्यपि ] यद्यपि [इह प्राक्-
पदव्यां ] इस पहली पदवीमें (जब तक शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक) [निहित-
पदानां ]
जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [हन्त ] अरेरे ! [हस्तावलम्बः स्यात् ]
हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि ] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं
अन्तः पश्यतां ]
जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम

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(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः
।।६।।
‘अर्थ’ को अन्तरङ्गमें अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर
चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उन्हें [एषः ] यह व्यवहारनय [किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान
नहीं है
भावार्थ :शुद्ध स्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण होनेके बाद अशुद्धनय कुछ भी
प्रयोजनकारी नहीं है ।५।
अब निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अस्य आत्मनः ] इस आत्माको [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
दर्शनम् ] अन्य द्रव्योंसे पृथक् देखना (श्रद्धान करना) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ] ही
नियमसे सम्यग्दर्शन है
यह आत्मा [व्याप्तुः ] अपने गुण-पर्यायोंमें व्याप्त (रहनेवाला) है, और
[शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य ] शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है तथा [पूर्ण-ज्ञान-
घनस्य ]
पूर्णज्ञानघन है
[च ] और [तावान् अयं आत्मा ] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही
यह आत्मा है [तत् ] इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि ‘‘[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं
मुक्त्वा ] इस नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः ] यह आत्मा
एक ही हमें प्राप्त हो’’
भावार्थ :सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदोंमें
व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया हैशुद्धनयसे ज्ञायकमात्र
एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्योंके और अन्यद्रव्योंके भावोंसे अलग
देखना, श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है
व्यवहारनय आत्माको अनेक भेदरूप
कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार (दोष) आता है, नियम नहीं
रहता
शुद्धनयकी सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता, इसलिए नियमरूप है
शुद्धनयके विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानघन हैसर्व लोकालोकको जाननेवाले ज्ञानस्वरूप है
ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है यह कहीं पृथक् पदार्थ नहीं हैआत्माका ही
परिणाम है, इसलिये आत्मा ही है अतः जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं

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(अनुष्टुभ्)
अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति ।।७।।
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो नय है सो श्रुतप्रमाणका अंश है, इसलिये
शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुआ श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि वस्तुको सर्वज्ञके
आगमके वचनसे जाना है; इसलिये यह शुद्धनय सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्माकी सर्व पर्यायोंमें
व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप
सर्व लोकालोकको जाननेवाले, असाधारण चैतन्यधर्मको
परोक्ष दिखाता है यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमको प्रमाण करके शुद्धनयसे दिखाये गये
पूर्ण आत्माका श्रद्धान करे सो वह श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है जब तक केवल
व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तब तक निश्चय
सम्यग्दर्शन नहीं होता
इसलिये आचार्य कहते हैं कि इस नवतत्त्वोंकी संतति (परिपाटी) को
छोड़कर शुद्धनयके विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते यह
वीतराग अवस्थाकी प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है यदि सर्वथा नयोंका पक्षपात ही हुआ
क रे तो मिथ्यात्व ही है
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभवमें आये तो
इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं ? उसका समाधान यह है :नास्तिकोंको छोड़कर सभी
मतवाले आत्माको चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहा जाये तो
सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायगा
इसलिये सर्वज्ञकी वाणीमें जैसा पूर्ण आत्माका स्वरूप
कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे ही निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिए ।६।
अब, टीकाकारआचार्य निम्नलिखित श्लोकमें यह कहते हैं कि‘तत्पश्चात्
शुद्धनयके आधीन, सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्मज्योति प्रगट हो जाती है’ :
श्लोकार्थ :[अतः ] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं ] शुद्धनयके आधीन [प्रत्यग्-
ज्योतिः ] जो भिन्न आत्मज्योति है [तत् ] वह [चकास्ति ] प्रगट होती है [यद् ] कि जो
[नव-तत्त्व-गतत्वे अपि ] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होने पर भी [एकत्वं ] अपने एकत्वको [न
मुंचति ]
नहीं छोड़ती
भावार्थ :नवतत्त्वोंमें प्राप्त हुआ आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है; यदि उसका भिन्न
स्वरूप विचार किया जाये तो वह अपनी चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता ।७।

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भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।१३।।
भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च
आस्रवसंवरनिर्जरा बन्धो मोक्षश्च सम्यक्त्वम।।१३।।
अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं सम्पद्यन्त एव, अमीषु
तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणेषु
नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्म-
ख्यातिलक्षणायाः सम्पद्यमानत्वात
तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावको-
भयमास्रवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयंः बन्धः,
इसप्रकार ही शुद्धनयसे जानना सो सम्यक्त्व है, यह सूत्रकार इस गाथामें कहते हैं :
भूतार्थसे जाने अजीव जीव, पुण्य पाप रु निर्जरा
आस्रव संवर बन्ध मुक्ति, ये हि समकित जानना ।।१३।।
गाथार्थ :[भूतार्थेन अभिगताः ] भूतार्थ नयसे ज्ञात [जीवाजीवौ ] जीव, अजीव [च ]
और [पुण्यपापं ] पुण्य, पाप [च ] तथा [आस्रवसंवरनिर्जराः ] आस्रव, संवर, निर्जरा, [बन्धः ]
बन्ध [च ] और [मोक्षः ] मोक्ष [सम्यक्त्वम् ]
यह नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं
टीका :ये जीवादि नवतत्त्व भूतार्थ नयसे जाने हुवे सम्यग्दर्शन ही हैं (यह
नियम कहा); क्योंकि तीर्थकी (व्यवहार धर्मकी) प्रवृत्तिके लिये अभूतार्थ (व्यवहार)नयसे
कहे जाते हैं ऐसे ये नवतत्त्व
जिनके लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर,
निर्जरा, बन्ध और मोक्ष हैंउनमें एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनयसे एकत्व प्राप्त करके,
शुद्धनयरूपसे स्थापित आत्माकी अनुभूतिजिसका लक्षण आत्मख्याति हैउसकी प्राप्ति
होती है (शुद्धनयसे नवतत्त्वोंको जाननेसे आत्माकी अनुभूति होती है, इस हेतुसे यह नियम
कहा है ) वहाँ, विकारी होने योग्य और विकार करनेवालादोनों पुण्य हैं तथा दोनों पाप
हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करनेवालादोनों आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य
(संवार्य) और संवर करनेवाला (संवारक)दोनों संवर हैं, निर्जरा होनेके योग्य और निर्जरा
करनेवालादोनों निर्जरा हैं, बन्धनेके योग्य और बन्धन करनेवालादोनों बन्ध हैं और मोक्ष
होने योग्य तथा मोक्ष करनेवालादोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एकके ही अपने आप पुण्य, पाप,

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मोच्यमोचकोभयं मोक्षः, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः तदुभयं च
जीवाजीवाविति बहिर्दृष्टया नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूय-
मानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि ततोऽमीषु
नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव प्रद्योतते तथान्तर्दृष्टया ज्ञायको भावो जीवः, जीवस्य
विकारहेतुरजीवः केवलजीवविकाराश्च पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणाः, केवलाजीवविकार-
हेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षा इति नवतत्त्वान्यमून्यपि जीवद्रव्यस्वभावमपोह्य
स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ च सकलकालमेवास्खलन्तमेकं
जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि
ततोऽमीष्वपि नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेनैको जीव एव
प्रद्योतते एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव या त्वनुभूतिः सात्मख्याति-
रेवात्मख्यातिस्तु सम्यग्दर्शनमेव इति समस्तमेव निरवद्यम
आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्षकी उपपत्ति (सिद्धि) नहीं बनती वे दोनों जीव और
अजीव हैं (अर्थात् उन दोमेंसे एक जीव है और दूसरा अजीव)
बाह्य (स्थूल) दृष्टिसे देखा जाये तो :जीव-पुद्गलकी अनादि बन्धपर्यायके समीप
जाकर एकरूपसे अनुभव करनेपर यह नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्यके
स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; (वे जीवके एकाकार
स्वरूपमें नहीं हैं;) इसलिये इन नव तत्त्वोंमें भूतार्थ नयसे एक जीव ही प्रकाशमान है
इसीप्रकार अन्तर्दृष्टिसे देखा जाये तो :ज्ञायक भाव जीव है और जीवके विकारका हेतु
अजीव है; और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्षये जिनके लक्षण हैं
ऐसे केवल जीवके विकार हैं और पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष
ये विकारहेतु केवल अजीव हैं ऐसे यह नवतत्त्व, जीवद्रव्यके स्वभावको छोड़कर, स्वयं
और पर जिनके कारण हैं ऐसी एक द्रव्यकी पर्यायोंके रूपमें अनुभव करने पर भूतार्थ हैं
और सर्व कालमें अस्खलित एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करने पर वे
अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
इसलिये इन नवों तत्त्वोंमें भूतार्थ नयसे एक जीव ही प्रकाशमान
है इसप्रकार यह, एकत्वरूपसे प्रकाशित होता हुआ, शुद्धनयरूपसे अनुभव किया जाता है
और जो यह अनुभूति है सो आत्मख्याति (आत्माकी पहिचान) ही है, और जो आत्मख्याति
है सो सम्यग्दर्शन ही है
इसप्रकार यह सर्व कथन निर्दोष हैबाधा रहित है
भावार्थ :इन नव तत्त्वोंमें, शुद्धनयसे देखा जाय तो, जीव ही एक चैतन्यचमत्कारमात्र
प्रकाशरूप प्रगट हो रहा है, इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न नव तत्त्व कुछ भी दिखाई नहीं देते जब

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(मालिनी)
चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं
कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे
अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं
प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम
।।८।।
अथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्था-
5
तक इसप्रकार जीव तत्त्वकी जानकारी जीवको नहीं है तब तक वह व्यवहारदृष्टि है, भिन्न भिन्न
नव तत्त्वोंको मानता है
जीवपुद्गलकी बन्धपर्यायरूप दृष्टिसे यह पदार्थ भिन्न भिन्न दिखाई देते
हैं; किन्तु जब शुद्धनयसे जीव-पुद्गलका निजस्वरूप भिन्न भिन्न देखा जाये तब वे पुण्य, पापादि
सात तत्त्व कुछ भी वस्तु नहीं हैं; वे निमित्त-नैमित्तिक भावसे हुए थे, इसलिए जब वह निमित्त-
नैमित्तिकभाव मिट गया तब जीव-पुद्गल भिन्न भिन्न होनेसे अन्य कोई वस्तु (पदार्थ) सिद्ध नहीं
हो सकती
वस्तु तो द्रव्य है, और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके साथ ही रहता है तथा निमित्त-
नैमित्तिकभावका तो अभाव ही होता है, इसलिये शुद्धनयसे जीवको जाननेसे ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
हो सकती है
जब तक भिन्न भिन्न नव पदार्थोंको जाने, और शुद्धनयसे आत्माको न जाने तब
तक पर्यायबुद्धि है ।।१३।।
यहाँ, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति ] इसप्रकार [चिरम् नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः ] नव
तत्त्वोंमें बहुत समयसे छिपी हुई यह आत्मज्योति [उन्नीयमानं ] शुद्धनयसे बाहर निकालकर प्रगट
की गई है, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव ] जैसे वर्णोके समूहमें छिपे हुए एकाकार
स्वर्णको बाहर निकालते हैं
[अथ ] इसलिए अब हे भव्य जीवों ! [सततविविक्तं ] इसे सदा अन्य
द्रव्योंसे तथा उनसे होनेवाले नैमित्तिक भावोंसे भिन्न, [एकरूपं ] एकरूप [दृश्यताम् ] देखो
[प्रतिपदम् उद्योतमानम् ] यह (ज्योति), पद पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्यायमें एकरूप
चित्चमत्कारमात्र उद्योतमान है
भावार्थ :यह आत्मा सर्व अवस्थाओंमें विविधरूपसे दिखाई देता था, उसे शुद्धनयने
एक चैतन्य-चमत्कारमात्र दिखाया है; इसलिये अब उसे सदा एकाकार ही अनुभव करो,
पर्यायबुद्धिका एकान्त मत रखो
ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है ।८।
टीका :अब, जैसे नवतत्त्वोंमें एक जीवको ही जानना भूतार्थ कहा है, उसीप्रकार,
एकरूपसे प्रकाशमान आत्माके अधिगमके उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे भी निश्चयसे

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स्तेष्वप्ययमेक एव भूतार्थः प्रमाणं तावत्परोक्षं प्रत्यक्षं च तत्रोपात्तानुपात्तपरद्वारेण प्रवर्तमानं
परोक्षं, केवलात्मप्रतिनियतत्वेन प्रवर्तमानं प्रत्यक्षं च तदुभयमपि प्रमातृप्रमाणप्रमेयभेदस्यानुभूय-
मानतायां भूतार्थम्, अथ च व्युदस्तसमस्तभेदैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम नयस्तु
द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिकः,
पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायार्थिकः तदुभयमपि द्रव्यपर्याययोः पर्यायेणानुभूयमानतायां
भूतार्थम्, अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तुमात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् निक्षेपस्तु
नाम स्थापना द्रव्यं भावश्च तत्रातद्गुणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधि-
व्यवस्थापनं स्थापना वर्तमानतत्पर्यायादन्यद् द्रव्यम वर्तमानतत्पर्यायो भावः तच्चतुष्टयं
अभूतार्थ हैं, उनमें भी आत्मा एक ही भूतार्थ है (क्योंकि ज्ञेय और वचनके भेदोंसे प्रमाणादि अनेक
भेदरूप होते हैं)
उनमेंसे पहले, प्रमाण दों प्रकारके हैंपरोक्ष और प्रत्यक्ष उपात्त और
अनुपात्त पर (पदार्थों) द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष है और केवल आत्मासे ही प्रतिनिश्चितरूपसे प्रवृत्ति
करे सो प्रत्यक्ष है (प्रमाण ज्ञान है वह पाँच प्रकारका हैमति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और
केवल उनमेंसे मति और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, अवधि और मनःपर्ययज्ञान विकल-प्रत्यक्ष हैं और
केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष है इसलिये यह दो प्रकारके प्रमाण हैं ) वे दोनों प्रमाता, प्रमाण,
प्रमेयके भेदका अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और जिसमें सर्व भेद गौण हो गये हैं
ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
नय दो प्रकारके हैं द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक वहां द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तुमें
द्रव्यका मुख्यतासे अनुभव कराये सो द्रव्यार्थिक नय है और पर्यायका मुख्यतासे अनुभव कराये
सो पर्यायार्थिक नय है
यह दोनों नय द्रव्य और पर्यायका पर्यायसे (भेदसे, क्रमसे) अनुभव
करने पर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और द्रव्य तथा पर्याय दोनोंसे अनालिंगित (आलिंगन नहीं
किया हुआ) शुद्धवस्तुमात्र जीवके (चैतन्यमात्र) स्वभावका अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं,
असत्यार्थ हैं
निक्षेपके चार भेद हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव वस्तुमें जो गुण न हो उस गुणके
नामसे (व्यवहारके लिए) वस्तुकी संज्ञा करना सो नाम निक्षेप है ‘यह वह है’ इसप्रकार अन्य
वस्तुमें अन्य वस्तुका प्रतिनिधित्व स्थापित करना (प्रतिमारूप स्थापन करना) सो स्थापना निक्षेप
है वर्तमानसे अन्य अर्थात् अतीत अथवा अनागत पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो द्रव्य
१. उपात्त=प्राप्त (इन्द्रिय, मन इत्यादि उपात्त पदार्थ हैं )
२. अनुपात्त=अप्राप्त (प्रकाश, उपदेश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं )

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स्वस्वलक्षणवैलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थम्, अथ च निर्विलक्षणस्वलक्षणैकजीवस्वभावस्यानुभूय-
मानतायामभूतार्थम अथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जीव एव प्रद्योतते
(मालिनी)
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंक षेऽस्मि-
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव
।।९।।
निक्षेप हे वर्तमान पर्यायसे वस्तुको वर्तमानमें कहना सो भाव निक्षेप है इन चारों निक्षेपोंका
अपने-अपने लक्षणभेदसे (विलक्षणरूपसेभिन्न भिन्न रूपसे) अनुभव किये जानेपर वे भूतार्थ
हैं, सत्यार्थ हैं; और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्यलक्षणरूप जीवस्वभावका अनुभव
करनेपर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं
इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपोंमें भूतार्थरूपसे
एक जीव ही प्रकाशमान है
भावार्थ :इन प्रमाण, नय, निक्षेपोंका विस्तारसे कथन तद्विषयक ग्रन्थोंसे जानना
चाहिये; उनसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है वे साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ
ही हैं, क्योंकि वे ज्ञानके ही विशेष हैं उनके बिना वस्तुको चाहे जैसा साधा जाये तो
विपर्यय हो जाता है अवस्थानुसार व्यवहारके अभावकी तीन रीतियाँ हैं : प्रथम अवस्थामें
प्रमाणादिसे यथार्थ वस्तुको जानकर ज्ञान-श्रद्धानकी सिद्धि करना; ज्ञान-श्रद्धानके सिद्ध होनेपर
श्रद्धानके लिए प्रमाणादिकी कोई आवश्यकता नहीं है
किन्तु अब यह दूसरी अवस्थामें
प्रमाणादिके आलम्बनसे विशेष ज्ञान होता है और राग-द्वेष-मोहकर्मका सर्वथा अभावरूप
यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है; उससे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है
केवलज्ञान होनेके पश्चात्
प्रमाणादिका आलम्बन नहीं रहता तत्पश्चात् तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है, वहाँ भी कोई
आलम्बन नहीं है इसप्रकार सिद्ध अवस्थामें प्रमाण-नय-निक्षेपका अभाव ही है
इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :आचार्य शुद्धनयका अनुभव करके कहते हैं कि[अस्मिन् सर्वंक षे
धाम्नि अनुभवम् उपयाते ] इन समस्त भेदोंको गौण करनेवाला जो शुद्धनयके विषयभूत
चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होनेपर [नयश्रीः न उदयति ]
नयोंकी लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति ] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि
च ]
और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः ] निक्षेपोंका समूह कहां चाला जाता है सो

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(उपजाति)
आत्मस्वभावं परभावभिन्न-
मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम
विलीनसंक ल्पविक ल्पजालं
प्रकाशयन
् शुद्धनयोऽभ्युदेति ।।१०।।
हम नहीं जानते [किम् अपरम् अभिदध्मः ] इससे अधिक क्या कहें ? [द्वैतम् एव न
भाति ] द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता
भावार्थ :भेदको अत्यन्त गौण करके कहा है किप्रमाण, नयादि भेदकी तो बात
ही क्या ? शुद्ध अनुभवके होनेपर द्वैत ही भासित नहीं होता, एकाकार चिन्मात्र ही दिखाई देता
है
यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदान्ती कहते हैं किअन्तमें परमार्थरूप तो अद्वैतका ही
अनुभव हुआ यही हमारा मत है; इसमें आपने विशेष क्या कहा ? इसका उत्तर :तुम्हारे मतमें
सर्वथा अद्वैत माना जाता है यदि सर्वथा अद्वैत माना जाये तो बाह्य वस्तुका अभाव ही हो जाये,
और ऐसा अभाव तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है हमारे मतमें नयविवक्षा है जो कि बाह्य वस्तुका लोप नहीं
करती जब शुद्ध अनुभवसे विक ल्प मिट जाता है तब आत्मा परमानन्दको प्राप्त होता है, इसलिये
अनुभव करानेके लिए यह कहा है कि ‘‘शुद्ध अनुभवमें द्वैत भासित नहीं होता’’ यदि बाह्य
वस्तुका लोप किया जाये तो आत्माका भी लोप हो जायेगा और शून्यवादका प्रसङ्ग आयेगा
इसलिए जैसा तुम कहते हो उसप्रकारसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो सकती, और वस्तुस्वरूपकी
यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव किया जाता है वह भी मिथ्यारूप है; शून्यका प्रसङ्ग होनेसे
तुम्हारा अनुभव भी आकाश-कुसुमके अनुभवके समान है
।९।
आगे शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति ] शुद्धनय आत्मस्वभावको
प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है वह आत्मस्वभावको [परभावभिन्नम् ] परद्रव्य, परद्रव्यके
भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने विभावऐसे परभावोंसे भिन्न प्रगट करता है और
वह, [आपूर्णम् ] आत्मस्वभाव सम्पूर्णरूपसे पूर्ण हैसमस्त लोकालोकका ज्ञाता हैऐसा प्रगट
करता है; (क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे हैं, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं ) और वह, [आदि-
अन्त-विमुक्त म् ] आत्मस्वभावको आदि-अन्तसे रहित प्रगट करता है (अर्थात् किसी आदिसे लेकर
जो किसीसे उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसीसे जिसका विनाश नही होता, ऐसे

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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।।१४।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतम
अविशेषमसंयुक्तं तं शुद्धनयं विजानीहि ।।१४।।
या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः,
सा त्वनुभूतिरात्मैव; इत्यात्मैक एव प्रद्योतते कथं यथोदितस्यात्मनोऽनुभूतिरिति चेद्बद्ध-
स्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात तथा हियथा खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य
पारिणामिक भावको वह प्रगट करता है) और वह, [एकम् ] आत्मस्वभावको एकसर्व
भेदभावोंसे (द्वैतभावोंसे) रहित एकाकारप्रगट करता है, और [विलीनसंकल्पविकल्पजालं ]
जिसमें समस्त संकल्प-विक ल्पके समूह विलीन हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है (द्रव्यकर्म,
भावकर्म, नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्योंमें अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयोंके भेदसे
ज्ञानमें भेद ज्ञात होना सो विकल्प है
) ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है ।१०।
उस शुद्धनयको गाथासूत्रसे कहते हैं :
अनबद्धस्पृष्ट अनन्य अरु, जो नियत देखे आत्मको
अविशेष अनसंयुक्त उसको शुद्धनय तू जानजो ।।१४।।
गाथार्थ :[यः ] जो नय [आत्मानम् ] आत्माको [अबद्धस्पृष्टम् ] बन्ध रहित और
परके स्पर्शसे रहित, [अनन्यकं ] अन्यत्व रहित, [नियतम् ] चलाचलता रहित, [अविशेषम् ]
विशेष रहित, [असंयुक्तं ] अन्यके संयोगसे रहित
ऐसे पांच भावरूपसे [पश्यति ] देखता
है [तं ] उसे, हे शिष्य ! तू [शुद्धनयं ] शुद्धनय [विजानीहि ] जान
टीका :निश्चयसे अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्तऐसे
आत्माकी जो अनुभूति सो शुद्धनय है, और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार आत्मा
एक ही प्रकाशमान है
(शुद्धनय, आत्माकी अनुभूति या आत्मा सब एक ही हैं, अलग
नहीं ) यहां शिष्य पूछता है कि जैसा ऊ पर कहा है वैसे आत्माकी अनुभूति कैसे हो सकती
है ? उसका समाधान यह है :बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव अभूतार्थ हैं, इसलिए यह अनुभूति
हो सकती है
इस बातको दृष्टान्तसे प्रगट करते हैं

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सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः सलिलास्पृश्यं
बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
्, तथात्मनोऽनादिबद्धस्य बद्धस्पृष्टत्व-
पर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभाव-
मुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्करीकपालादि-
पर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेकं मृत्तिकास्वभावमुपेत्यानु-
भूयमानतायामभूतार्थम
्, तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि
सर्वतोऽप्यस्खलन्तमेक मात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थमयथा च वारिधेर्वृद्धिहानि-
जैसे कमलिनी-पत्र जलमें डूबा हुआ हो तो उसका जलसे स्पर्शित होनेरूप अवस्थासे
अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित होना भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि जलसे किंचित्मात्र भी न
स्पर्शित होने योग्य कमलिनी-पत्रके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर जलसे स्पर्शित
होना अभूतार्थ है
असत्यार्थ है; इसीप्रकार अनादि कालसे बँधे हुए आत्माका, पुद्गलकर्मोंसे
बंधनेस्पर्शित होनेरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि
पुद्गलसे किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर
बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है
असत्यार्थ है
तथा जैसे मिट्टीका, कमण्डल, घड़ा, झारी, सकोरा इत्यादि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर
अन्यत्व भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि सर्वतः अस्खलित (सर्व पर्यायभेदोंसे किंचित्मात्र भी
भेदरूप न होनेवाले ऐसे) एक मिट्टीके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर अन्यत्व
अभूतार्थ है
असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, नारक आदि पर्यायोंसे अनुभव करनेपर
(पर्यायोंके अन्य-अन्यत्वरूप) अन्यत्व भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि सर्वतः अस्खलित
(सर्व पर्यायभेदोंसे किंचित्मात्र भी भेदरूप न होनेवाले ऐसे) एक चैतन्याकार आत्मस्वभावके
समीप जाकर अनुभव करनेपर अन्यत्व अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है
जैसे समुद्रका, वृद्धिहानिरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर अनियतता (अनिश्चितता)
भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि नित्य-स्थिर समुद्रस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर
अनियतता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, वृद्धिहानिरूप पर्यायभेदोंसे अनुभव
करनेपर अनियतता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि नित्य-स्थिर (निश्चल) आत्मस्वभावके समीप
जाकर अनुभव करनेपर अनियतता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है
जैसे सुवर्णका, चिकनापन, पीलापन, भारीपन इत्यादि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर

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पर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं वारिधिस्वभाव-
मुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्, तथात्मनो वृद्धिहानिपर्यायेणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि
नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
यथा च कांचनस्य
स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषं
कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
्, तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां
विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम यथा
चापां सप्तार्चिःप्रत्ययौष्ण्यसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः
शीतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम
्, तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्व-
पर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः स्वयं बोधं जीवस्वभावमुपेत्यानुभूय-
मानतायामभूतार्थम
विशेषता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय हो गये हैं ऐसे सुवर्ण
स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर विशेषता अभूतार्थ हैअसत्यार्थ है; इसीप्रकार
आत्माका, ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता भूतार्थ हैसत्यार्थ है,
तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय हो गये हैं ऐसे आत्मस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर
विशेषता अभूतार्थ है
असत्यार्थ है
जैसे जलका, अग्नि जिसका निमित्त है ऐसी उष्णताके साथ संयुक्त तारूप तप्ततारूप
-अवस्थासे अनुभव करनेपर (जलको) उष्णतारूप संयुक्त ता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि
एकान्त शीतलतारूप जलस्वभावके समीप जाकर अनुभव करने पर (उष्णताके साथ)
संयुक्त ता अभूतार्थ है
असत्यार्थ है; इसीप्रकार आत्माका, कर्म जिसका निमित्त है ऐसे
मोहके साथ संयुक्त तारूप अवस्थासे अनुभव करनेपर संयुक्त ता भूतार्थ हैसत्यार्थ है, तथापि
जो स्वयं एकान्त बोधरूप (ज्ञानरूप) है ऐसे जीवस्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर
संयुक्त ता अभूतार्थ है
असत्यार्थ है
भावार्थ :आत्मा पांच प्रकारसे अनेकरूप दिखाई देता है :(१) अनादि
कालसे कर्मपुद्गलके सम्बन्धसे बन्धा हुआ कर्मपुद्गलके स्पर्शवाला दिखाई देता है, (२)
कर्मके निमित्तसे होनेवाली नर, नारक आदि पर्यायोंमें भिन्न भिन्न स्वरूपसे दिखाई देता है,
(३) शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं
यह वस्तुस्वभाव है,
इसलिए वह नित्य-नियत एकरूप दिखाई नहीं देता, (४) वह दर्शन, ज्ञान आदि अनेक
गुणोंसे विशेषरूप दिखाई देता है और (५) कर्मके निमित्तसे होनेवाले मोह, राग, द्वेष आदि

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परिणामोंकर सहित वह सुखदुःखरूप दिखाई देता है यह सब अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप
व्यवहारनयका विषय है इस दृष्टि (अपेक्षा)से देखा जाये तो यह सब सत्यार्थ है परन्तु
आत्माका एक स्वभाव इस नयसे ग्रहण नहीं होता, और एक स्वभावको जाने बिना यथार्थ
आत्माको कैसे जाना जा सकता है ? इसलिए दूसरे नयको
उसके प्रतिपक्षी शुद्धद्रव्यार्थिक
नयकोग्रहण करके, एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर, उसे शुद्धनयकी
दृष्टिसे सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, सर्व पर्यायोंमें ऐकाकार, हानिवृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित और
नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाये तो सर्व (पांच) भावोंसे जो अनेकप्रकारता है वह अभूतार्थ
है
असत्यार्थ है
यहां यह समझना चाहिए कि वस्तुका स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे
यथार्थ सिद्ध होता है आत्मा भी अनन्त धर्मवाला है उसके कुछ धर्म तो स्वाभाविक हैं
और कुछ पुद्गलके संयोगसे होते हैं जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे तो आत्माकी
सांसारिक प्रवृत्ति होती है और तत्सम्बन्धी जो सुख-दुःखादि होते हैं उन्हें भोगता है यह, इस
आत्माकी अनादिकालीन अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है; उसे अनादि-अनन्त एक आत्माका ज्ञान नहीं
है
इसे बतानेवाला सर्वज्ञका आगम है उसमें शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे यह बताया है कि
आत्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है जो कि अखण्ड नित्य और अनादिनिधन है उसे
जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है परद्रव्योंसे, उनके भावोंसे और उनके निमित्तसे
होनेवाले अपने विभावोंसे अपने आत्माको भिन्न जानकर जीव उसका अनुभव करता है तब
परद्रव्यके भावोंस्वरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए कर्म बन्ध नहीं होता और संसारसे निवृत्त
हो जाता है
इसलिये पर्यायार्थिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ (असत्यार्थ) कहा
है और शुद्ध निश्चयनयको सत्यार्थ कहकर उसका आलम्बन दिया है वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति
होनेके बाद उसका भी आलम्बन नहीं रहता इस कथनसे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि
शुद्धनयको सत्यार्थ कहा है, इसलिए अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है ऐसा माननेसे
वेदान्तमतवाले जो कि संसारको सर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकान्त पक्ष आ जायेगा
और उससे मिथ्यात्व आ जायेगा, इसप्रकार यह शुद्धनयका आलम्बन भी वेदान्तियोंकी भांति
मिथ्यादृष्टिपना लायेगा
इसलिये सर्व नयोंकी कथंचित् सत्यार्थताका श्रद्धान करनेसे ही
सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है इसप्रकार स्याद्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना चाहिए,
मुख्य-गौण कथनको सुनकर सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं पकड़ना चाहिए इस गाथासूत्रका
विवेचन करते हुए टीकाकार आचार्यने भी कहा है कि आत्मा व्यवहारनयकी दृष्टिमें जो

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(मालिनी)
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फु टमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम
अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम।।११।।
6
बद्धस्पृष्ट आदि रूप दिखाई देता है वह इस दृष्टिसे तो सत्यार्थ ही है, परन्तु शुद्धनयकी दृष्टिसे
बद्धस्पृष्टादिता असत्यार्थ है
इस कथनमें टीकाकार आचार्यने स्याद्वाद बताया है ऐसा जानना
और, यहां यह समझना चाहिए कि यह नय है सो श्रुतज्ञान-प्रमाणका अंश है; श्रुतज्ञान
वस्तुको परोक्ष बतलाता है; इसलिए यह नय भी परोक्ष ही बतलाता है शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका
विषयभूत, बद्धस्पृष्ट आदि पांच भावोंसे रहित आत्मा चैतन्यशक्तिमात्र है वह शक्ति तो आत्मामें
परोक्ष है ही; और उसकी व्यक्ति कर्मसंयोगसे मतिश्रुतादि ज्ञानरूप है वह कथंचित् अनुभवगोचर
होनेसे प्रत्यक्षरूप भी क हलाती है, और सम्पूर्णज्ञान
केवलज्ञान यद्यपि छद्मस्थके प्रत्यक्ष नहीं है
तथापि यह शुद्धनय आत्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष बतलाता है जब तक जीव इस नयको नहीं
जानता तब तक आत्माके पूर्ण रूपका ज्ञान-श्रद्धान नहीं होता इसलिए श्री गुरुने इस शुद्धनयको
प्रगट करके उपदेश किया है कि बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावोंसे रहित पूर्णज्ञानघनस्वभाव आत्माको
जानकर श्रद्धान करना चाहिए, पर्यायबुद्धि नहीं रहना चाहिए
यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे किऐसा आत्मा प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देता और बिना देखे
श्रद्धान करना असत्य श्रद्धान है उसका उत्तर यह है :देखे हुएका श्रद्धान करना तो नास्तिक
मत है जिनमतमें तो प्रत्यक्ष और परोक्षदोनों प्रमाण माने गये हैं उनमेंसे आगमप्रमाण परोक्ष
है उसका भेद शुद्धनय है इस शुद्धनयकी दृष्टिसे शुद्ध आत्माका श्रद्धान करना चाहिए, केवल
व्यवहार-प्रत्यक्षका ही एकान्त नहीं करना चाहिए ।।१४।।
यहाँ, इस शुद्धनयको मुख्य करके कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[जगत् तम् एव सम्यक्स्वभावम् अनुभवतु ] जगतके प्राणी इस सम्यक्
स्वभावका अनुभव करो कि [यत्र ] जहाँ [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः ] यह बद्धस्पृष्टादिभाव [एत्य
स्फु टम् उपरि तरन्तः अपि ]
स्पष्टतया उस स्वभावके ऊ पर तरते हैं तथापि वे [प्रतिष्ठाम् न हि
विदधति ]
(उसमें) प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्यस्वभाव तो नित्य है, एकरूप है और यह भाव
अनित्य हैं, अनेकरूप हैं; पर्यायें द्रव्यस्वभावमें प्रवेश नहीं करती, ऊ पर ही रहती हैं
[समन्तात्
द्योतमानं ] यह शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओंमें प्रकाशमान है [अपगतमोहीभूय ] ऐसे शुद्ध

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(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधी-
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः
।।१२।।
(वसंततिलका)
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प-
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात
।।१३।।
स्वभावका, मोह रहित होकर जगत अनुभव करो; क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वरूप
अज्ञान जहां तक रहता है वहां तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता
भावार्थ :यहां यह उपदेश है कि शुद्धनयके विषयरूप आत्माका अनुभव करो ।११।
अब, इसी अर्थका सूचक कलशरूप काव्य पुनः कहते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि
ऐसा अनुभव करने पर आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान होता है :
श्लोकार्थ :[यदि ] यदि [कः अपि सुधीः ] कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव [भूतं
भान्तम् अभूतम् एव बन्धं ] भूत, वर्तमान और भविष्यतीनों कालके कर्मबन्धको अपने आत्मासे
[रभसात् ] तत्कालशीघ्र [निर्भिद्य ] भिन्न करके तथा [मोहं ] उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले
मिथ्यात्व (अज्ञान) को [हठात् ] अपने बलसे (पुरुषार्थसे) [व्याहत्य ] रोककर अथवा नाश
करके [अन्तः ] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति ] अभ्यास करे
देखे तो [अयम् आत्मा ] यह
आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य महिमा ] अपने अनुभवसे ही जानने योग्य जिसकी प्रगट
महिमा है ऐसा [व्यक्त : ] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं ] निश्चल, [शाश्वतः ] शाश्वत, [नित्यं
कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः ]
नित्य कर्मकलङ्क-कर्दमसे रहित
[स्वयं देवः ] ऐसा स्वयं स्तुति
करने योग्य देव [आस्ते ] विराजमान है
भावार्थ :शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सर्व कर्मोंसे रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी
आत्मा अन्तरङ्गमें स्वयं विराजमान है यह प्राणीपर्यायबुद्धि बहिरात्माउसे बाहर ढूँढ़ता है यह
महा अज्ञान है ।१२।

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जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं
अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।१५।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम।।१५।।
येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सा खल्वखिलस्य
जिनशासनस्यानुभूतिः, श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्; ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः किन्तु
अब, ‘शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी अनुभूति ही ज्ञानकी अनुभूति है’ इसप्रकार आगेकी
गाथाकी सूचनाके अर्थरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इति ] इसप्रकार [या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः ] जो पूर्वकथित
शुद्धनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है [इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः ] वही वास्तवमें ज्ञानकी
अनुभूति है [इति बुद्ध्वा ] यह जानकर तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य ] आत्मामें
आत्माको निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति ] ‘सदा सर्व ओर
एक ज्ञानघन आत्मा है’ इसप्रकार देखना चाहिये
भावार्थ :पहले सम्यग्दर्शनको प्रधान करके कहा था; अब ज्ञानको मुख्य करके कहते
हैं कि शुद्धनयके विषयस्वरूप आत्माकी अनुभूति ही सम्यग्ज्ञान है ।१३।
अब, इस अर्थरूप गाथा कहते हैं :
अनबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जो अविशेष देखे आत्मको,
वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो
।।१५।।
गाथार्थ :[यः ] जो पुरुष [आत्मानम् ] आत्माको [अबद्धस्पृष्टम् ] अबद्धस्पृष्ट,
[अनन्यम् ] अनन्य, [अविशेषम् ] अविशेष (तथा उपलक्षणसे नियत और असंयुक्त) [पश्यति ]
देखता है वह [सर्वम् जिनशासनं ] सर्व जिनशासनको [पश्यति ] देखता है,
कि जो जिनशासन
[अपदेशसान्तमध्यं ] बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है
टीका :जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पांच
भावस्वरूप आत्माकी अनुभूति है वह निश्चयसे समस्त जिनशासनकी अनुभूति है, क्योंकि श्रुतज्ञान
पाठान्तर : अपदेससुत्तमज्झं १ अपदेश=द्रव्यश्रुत; सान्त = ज्ञानरूप भावश्रुत

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तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदते तथा
हियथा विचित्रव्यंजनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं
लोकानामबुद्धानां व्यंजनलुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरो-
भावाभ्याम
्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि तथा
विचित्रज्ञेयाकारकरम्बितत्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबुद्धानां ज्ञेय-
लुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम
्; अथ च यदेव
विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं ज्ञानं तदेव सामान्याविर्भावेनापि अलुब्धबुद्धानां तु यथा सैन्धवखिल्यो-
ऽन्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकलवणरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदते, तथा-
स्वयं आत्मा ही है इसलिए ज्ञानकी अनुभूति ही आत्माकी अनुभूति है परन्तु अब वहाँ, सामान्य
ज्ञानके आविर्भाव (प्रगटपना) और विशेष (ज्ञेयाकार) ज्ञानके तिरोभाव (आच्छादन)से जब
ज्ञानमात्रका अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें
आसक्त हैं उन्हें वह स्वादमें नहीं आता
यह प्रगट दृष्टान्तसे बतलाते हैं :
जैसेअनेक प्रकारके शाकादि भोजनोंके सम्बन्धसे उत्पन्न सामान्य लवणके तिरोभाव
और विशेष लवणके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (सामान्यके तिरोभावरूप और
शाकादिके स्वादभेदसे भेदरूप
विशेषरूप) लवण है उसका स्वाद अज्ञानी, शाक-लोलुप
मनुष्योंको आता है, किन्तु अन्यकी सम्बन्धरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और
विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं
आता; और परमार्थसे देखा जाये तो, विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप)
लवण ही सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप) लवण है
इसप्रकार
अनेक प्रकारके ज्ञेयोंके आकारोंके साथ मिश्ररूपतासे उत्पन्न सामान्यके तिरोभाव और विशेषके
आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान है वह
अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवोंको स्वादमें आता है, किन्तु अन्यज्ञेयाकारकी संयोगरहिततासे उत्पन्न
सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप
ज्ञान वह स्वादमें नहीं आता; और परमार्थसे विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेषके
आविर्भावसे अनुभवमें आता है वही ज्ञान सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता है
अलुब्ध
ज्ञानियोंको तो, जैसे सैंधवकी डली, अन्यद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल सैंधवका
ही अनुभव किये जाने पर, सर्वतः एक क्षाररसत्वके कारण क्षाररूपसे स्वादमें आती है
उसीप्रकार आत्मा भी, परद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल आत्माका ही अनुभव

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त्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते
(पृथ्वी)
अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि-
र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा
चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम
।।१४।।
किये जाने पर, सर्वतः एक विज्ञानघनताके कारण ज्ञानरूपसे स्वादमें आता है
भावार्थ :यहाँ आत्माकी अनुभूतिको ही ज्ञानकी अनुभूति कहा गया है
अज्ञानीजन ज्ञेयोंमें हीइन्द्रियज्ञानके विषयोंमें हीलुब्ध हो रहे हैं; वे इन्द्रियज्ञानके विषयोंसे
अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं, परन्तु ज्ञेयोंसे भिन्न ज्ञानमात्रका
आस्वादन नहीं करते
और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं वे ज्ञेयोंसे भिन्न एकाकार
ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं,जैसे शाकोंसे भिन्न नमककी डलीका क्षारमात्र स्वाद आता
है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं, क्योंकि जो ज्ञान है सो आत्मा है और जो आत्मा है सो
ज्ञान है
इसप्रकार गुणगुणीकी अभेद दृष्टिमें आनेवाला सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, अपनी पर्यायोंमें
एकरूप, निश्चल, अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका
अनुभव, ज्ञानका अनुभव है; और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है
शुद्धनयसे इसमें कोई भेद नहीं है ।।१५।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :आचार्य कहते हैं कि [परमम् महः नः अस्तु ] हमें वह उत्कृष्ट तेज
-प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं ] कि जो तेज सदाकाल चैतन्यके
परिणमनसे परिपूर्ण है, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक
क्षाररसकी लीलाका आलम्बन करती है, उसीप्रकार जो तेज [एक-रसम् आलम्बते ] एक
ज्ञानरसस्वरूपका आलम्बन करता है; [अखण्डितम् ] जो तेज अखण्डित है
जो ज्ञेयोंके
आकाररूप खण्डित नहीं होता, [अनाकुलं ] जो अनाकुल हैजिसमें कर्मोंके निमित्तसे
होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत् ] जो
अविनाशीरूपसे अन्तरङ्गमें और बाहरमें प्रगट दैदीप्यमान है
जाननेमें आत्मा है, [सहजम् ]
जो स्वभावसे हुआ हैजिसे किसीने नहीं रचा और [सदा उद्विलासं ] सदा जिसका विलास
उदयरूप हैजो एकरूप प्रतिभासमान है

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(अनुष्टुभ्)
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः
साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम।।१५।।
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।।१६।।
दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः ।।१६।।
येनैव हि भावेनात्मा साध्यः साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां
भावार्थ :आचार्यदेवने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानन्दमय एकाकार स्वरूपज्योति हमें
सदा प्राप्त रहो ।१४।
अब, आगेकी गाथाकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[एषः ज्ञानघनः आत्मा ] यह (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [सिद्ध्मि्
अभीप्सुभिः ] स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको [साध्यसाधकभावेन ] साध्यसाधकभावके भेदसे
[द्विधा ] दो प्रकारसे, [एकः ] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका
सेवन करो
भावार्थ :आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ही है, परन्तु उसका पूर्णरूप साध्यभाव है और
अपूर्णरूप साधकभाव है; ऐसे भावभेदसे दो प्रकारसे एकका ही सेवन करना चाहिए ।१५।
अब, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव है यह इस गाथामें कहते हैं :
दर्शनसहित नित ज्ञान अरु, चारित्र साधु सेइये
पर ये तीनों आत्मा हि केवल, जान निश्चयदृष्टिमें ।।१६।।
गाथार्थ :[साधुना ] साधु पुरुषको [दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र
[नित्यम् ] सदा [सेवितव्यानि ] सेवन करने योग्य हैं; [पुनः ] और [तानि त्रीणि अपि ] उन
तीनोंको [निश्चयतः ] निश्चयनयसे [आत्मानं च एव ] एक आत्मा ही [जानीहि ] जानो
टीका :यह आत्मा जिस भावसे साध्य तथा साधन हो उस भावसे ही नित्य

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व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते तानि पुनस्त्रीण्यपि
परमार्थेनात्मैक एव, वस्त्वन्तराभावात यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च
देवदत्तस्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव, न वस्त्वन्तरम्; तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं
चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव, न वस्त्वन्तरम तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते
स किल
(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम
मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः ।।१६।।
सेवन करने योग्य हैइसप्रकार स्वयं उद्देश रखकर दूसरोंको व्यवहारसे प्रतिपादन करते हैं
कि ‘साधु पुरुषको दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेवन करने योग्य है’ किन्तु परमार्थसे देखा
जाये तो यह तीनों एक आत्मा ही हैं, क्योंकि वे अन्य वस्तु नहींकिन्तु आत्माकी ही
पर्याय हैं जैसे किसी देवदत्त नामक पुरुषके ज्ञान, श्रद्धान और आचरण, देवदत्तके
स्वभावका उल्लंघन न करनेसे, (वे) देवदत्त ही हैं,अन्य वस्तु नहीं, इसीप्रकार आत्मामें
भी आत्माके ज्ञान, श्रद्धान और आचरण, आत्माके स्वभावका उल्लंघन न करनेसे, आत्मा
ही हैं
अन्य वस्तु नहीं इसलिये यह स्वयमेव सिद्ध होता है कि एक आत्मा ही सेवन
करने योग्य है
भावार्थ :दर्शन, ज्ञान, चारित्रतीनों आत्माकी ही पर्याय हैं, कोई भिन्न वस्तु नहीं
हैं, इसलिये साधु पुरुषोंको एक आत्माका ही सेवन करना यह निश्चय है और व्यवहारसे
दूसरोंको भी यही उपदेश करना चाहिए
।।१६।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[प्रमाणतः ] प्रमाणदृष्टिसे देखा जाये तो [आत्मा ] यह आत्मा [समम्
मेचकः अमेचकः च अपि ] एक ही साथ अनेक अवस्थारूप (‘मेचक’) भी है और एक
अवस्थारूप (‘अमेचक’) भी है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात् ] क्योंकि इसे दर्शन-ज्ञान-
चारित्रसे तो त्रित्व (तीनपना) है और [स्वयम् एकत्वतः ] अपनेसे अपनेको एकत्व है
भावार्थ :प्रमाणदृष्टिमें त्रिकालस्वरूप वस्तु द्रव्यपर्यायरूप देखी जाती है, इसलिये
आत्माको भी एक ही साथ एक-अनेकस्वरूप देखना चाहिए ।१६।
अब, नयविवक्षा कहते हैं :