८४] [अष्टपाहुड
दुबिहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं।
सायारं १सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं।। २१।।
द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारं।
सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम्।। २१।।
अर्थः––संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है––सागार और निरागार। सागार तो
परिग्रह सहित श्रावकके होता है और निरागार परिग्रहसे रहित मुनिके होता है यह निश्चय है।।
२१।।
आगे सागार संयामाचरण को कहते हैंः––
दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य।। २२।।
दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचित्तं रात्रिभुक्तिश्व।
ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्ट देशविरतश्व।। २२।।
अर्थः––दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध आदिका नाम एकदेश है, और नाम ऐसे कहे
हैं––प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग,
अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, इसप्रकार ग्यारह प्रकार देशविरत है।
भावार्थः––ये सागार संयामाचरण के ग्यारह स्थान हैं, इनको प्रतिमा भी कहते
हैं।।२२।।
आगे इन स्थानोंमें संयमका आचरण किस प्रकार से है वह कहते हैंः––
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१ पाठान्तरः – सग्गंथं
सागार–अण–आगार एम द्विभेद संयमचरण छे;
सागार छे १सग्रंथ, अण–आगार परिग्रहरहित छे। २१।
दर्शन, व्रतं सामायिकं, प्रोषध, सचित, निशिभुक्तिने,
वळी ब्रह्म ने आरंभ आदिक देशविरतिस्थान छे। २२।