बोधपाहुड][११५
भावार्थः––ज्ञान पुरुषके होता है और पुरुष ही विनयवान होवे सो ज्ञानको प्राप्त करता है, उस ज्ञान द्वारा ही शुद्ध आत्माका स्वरूप जाना जाता है, इसलिये विशेष ज्ञानियों के विनय द्वारा ज्ञान की प्राप्ति करनी–क्योंकि निज शुद्ध स्वरूपको जानकर मोक्ष प्राप्त किया जाता है। यहाँ जो विनयरहित हो, यथार्थ सूत्रपदसे चिगा हो, भ्रष्ट हो गया हो उसका निषेध जानना।। २२।। आगे इसी को दृढ़ करते हैः––
मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बाणा सुअत्थि रयणत्तं।
परमत्थ बद्धलक्खो णवि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स।। २३।।
परमत्थ बद्धलक्खो णवि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स।। २३।।
मतिधनुर्यस्य स्थिरं श्रुतं गुणः बाणाः सुसंति रत्नत्रयं।
परमार्थबद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य।। २३।।
परमार्थबद्धलक्ष्यः नापि स्खलति मोक्षमार्गस्य।। २३।।
अर्थः––जिस मुनिके मतिज्ञानरूप धनुष स्थिर हो, श्रुतज्ञानरूप गुण अर्थात् प्रत्यंचा हो,
रत्नत्रयरूप उत्तम बाण हो और परमार्थस्वरूप निजशुद्धात्मस्वरूपका संबंधरूप लक्ष्य हो, वह
मुनि मोक्षमार्ग को नहीं चूकता है।
भावार्थः––धनुषकी सब सामग्री यथावत् मिले तब निशाना नहीं चूकता है, वैसे ही
मुनिके मोक्षमार्गकी यथावत् सामग्री मिले तब मोक्षमार्गसे भ्रष्ट नहीं होता है। उसके साधनसे
मोक्षको प्राप्त होता है। यह ज्ञान का महात्म्य है, इसलिये जिनागमके अनुसार सत्यार्थ
ज्ञानियोंका विनय करके ज्ञानका साधन करना।। २३।।
इसप्रकार ज्ञानका निरूपण किया।
मोक्षको प्राप्त होता है। यह ज्ञान का महात्म्य है, इसलिये जिनागमके अनुसार सत्यार्थ
ज्ञानियोंका विनय करके ज्ञानका साधन करना।। २३।।
इसप्रकार ज्ञानका निरूपण किया।
[८] आगे देवका स्वरूप कहते हैः––
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मति चाप थिर, श्रुत दोरी, जेने रत्नत्रय शुभ बाण छे,
परमार्थ जेनुं लक्ष्य छे, ते मोक्षमार्गे नव चूके। २३।