Ashtprabhrut (Hindi).

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बोधपाहुड][१२९
इसलिये अरहंत को सर्वदर्शी–सर्वज्ञ कहते हैं।

भावार्थः––इसप्रकार अरहंतका निरूपण चौदह गाथाओंमें किया। प्रथम गाथामें नाम,
स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण, पर्याय सहित च्व्यन, आगति, संपत्ति ये भाव अरहंत को बतलाते
हैं। इसका व्याख्यान नामादि कथनमें सर्व ही आ गया, उसका संक्षेप भावार्थ लिखते हैंः––

गर्भ–कलयाणकः––––प्रथम गर्भकलयाणक होता है; गर्भमें आनेके छह महीने पहिले
इन्द्रका भेजा हुआ कुबेर जिस राजाकी राणी के गर्भ में तीर्थंकर आयेंगे उसके नगरकी शोभा
करता है, रत्नमयी सुवर्णमयी मन्दिर बनाता है, नगर के कोट, खाई, दरवाजे, सुन्दर वन,
उपवन की रचना करता है, सुन्दर भेषवाले नर–नारी नगर में बसाता है, नित्य राजमन्दिर पर
रत्नों की वर्षा होती रहती है, तीर्थंकर का जीव जब माता के गर्भ में आता है तब माताको
सोलह स्वप्न आते हैं, रुचकवरद्वीपमें रहनेवाली देवांगनायें माता की नित्य सेवा करती हैं, ऐसे
नौ महीने पूरे होने पर प्रभुका तीन ज्ञान और दस अतिशय सहित जन्म होता है, तब तीन
लोक में आनंदमय क्षोभ होता है, देव के बिना बजाये बाजे बजते हैं, इन्द्रका आसन
कम्पायमान होता है, तब इन्द्र प्रभु का जन्म हुआ जान कर स्वगर से ऐरावत हाथी पर चढ़
कर आता है, सर्व चार प्रकार के देव–देवी एकत्र होकर आते है, शची
(इन्द्राणी) माता के
पास जाकर गुप्तरूपसे प्रभुको ले आती है, इन्द्र हर्षित होकर हजार नेत्रोंसे देखता है।

फिर सौधर्म इन्द्र, बालक शरीरी भगवान को अपनी गोदमें लेकर ऐरावत हाथी पर
चढ़कर मेरुपर्वत पर जाता है, इशान इन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार, महेन्द्र इन्द्र चँवर
ढोरते हैं, मेरुके पाँडुक वन की पाँडुकशिला पर सिंहासन के ऊपर प्रभुको विराजमान करते हैं,
सब देव क्षीर समुद्र से एक हजार आठ कलशोंमें जल लाकर देव–देवांगना गीत नृत्य वादित्र
बडे़ उत्साह सहित प्रभुके मस्तकपर कलश ढारकर जन्मकल्याणकका अभिषेक करते हैं, पीछे
श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण पहिनाकर माता के पास मंदिरमें लाकर माता के सौंप देते हैं, इन्द्रादिक
देव अपने–अपने स्थान चले जाते हैं, कुबेर सेवा के लिये रहता है।
तदनन्तर कुमार – अवस्था तथा राज्य –अवस्था भोग भोगकर फिर वैरागय कारण
पाकर संसार –देह– भोगोंके विरक्त हो जाते हैं। तब लौकान्तिक देव आकर, वैराग्य को
बढ़ाने वाली प्रभु की स्तुति करते हैं, फिर इन्द्र आकर ‘तप कल्याणक’ करता है। पालकी मैं
बैठाकर बड़े उत्सव से वन में ले जाता है, वहाँ प्रभु पवित्र शिला पर बैठ कर पंचमुष्टि से
लोचकर पंच महाव्रत अंगीकार करते हैं, समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बररूप धारण कर
ध्यान करते हैै,