बोधपाहुड][१४७
आगे भद्रबाहु स्वामी की स्तुतिरूप वचन कहते हैंः–––
बारसअंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ।। ६२।।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ।। ६२।।
द्वादशांगविज्ञानः चतुर्दशपूर्वांग विपुलविस्तरणः।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु।। ६२।।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु।। ६२।।
अर्थः––भद्रबाहु नाम आचार्य जयवंत होवें, कैसे हैं? जिनको बारह अंगोंका विशेष ज्ञान
हैं, जिनको चौदह पूर्वोंका विपुल विस्तार है इसीलिये श्रुतज्ञानी हैं। पूर्व भावज्ञान सहित
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, ‘गमक गुरु’ हैं, जो सूत्र के अर्थ को प्राप्त कर उसी प्रकार
वाक्यार्थ करे उसको ‘गमक’ कहते हैं, उनके भी गुरुओं में प्रधान हैं, भगवान हैं–––––
सुरासुरों से पूज्य हैं, वे जयवंत होंवें। इसप्रकार कहने में उनको स्तुतिरूप नमस्कार सूचित है।
‘जयति’ धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थ में है वह सर्वोत्कृष्ट कहेन से ही नमस्कार आता है।
भावार्थः–––भद्रबाहुस्वामी पंचम श्रुतकेवली हुए। उनकी परम्परा से शास्त्रका अर्थ
जानकर यह बोधपाहुड ग्रन्थ रचा गया है, इसलिये उनको अंतिम मंगल के लिये आचार्य ने
स्तुतिरूप नमस्कार किया है। इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है।। ६२।।
स्तुतिरूप नमस्कार किया है। इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है।। ६२।।
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जय बोध द्वादश अंगनो, चउदशपूरव–विस्तारनो,
जय हो श्रुतंधर भद्रबाहु गमकगुरु भगवाननो। ६२।