सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ।। ६२।।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु।। ६२।।
अर्थः––भद्रबाहु नाम आचार्य जयवंत होवें, कैसे हैं? जिनको बारह अंगोंका विशेष ज्ञान
हैं, जिनको चौदह पूर्वोंका विपुल विस्तार है इसीलिये श्रुतज्ञानी हैं। पूर्व भावज्ञान सहित
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, ‘गमक गुरु’ हैं, जो सूत्र के अर्थ को प्राप्त कर उसी प्रकार
वाक्यार्थ करे उसको ‘गमक’ कहते हैं, उनके भी गुरुओं में प्रधान हैं, भगवान हैं–––––
सुरासुरों से पूज्य हैं, वे जयवंत होंवें। इसप्रकार कहने में उनको स्तुतिरूप नमस्कार सूचित है।
‘जयति’ धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थ में है वह सर्वोत्कृष्ट कहेन से ही नमस्कार आता है।
स्तुतिरूप नमस्कार किया है। इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है।। ६२।।