भावपाहुड
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आगे भावपाहुड की वचनिका लिखते हैंः–––
दोहा
परमात्मकूं वंदिकरि शुद्धभावकरतार।
करूँ भावपाहुडतणीं देशवचनिका सार।। १।।
करूँ भावपाहुडतणीं देशवचनिका सार।। १।।
इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत भावपाहुडकी गाथाबद्ध देशभाषा वचनिका लिखते हैं। प्रथम आचार्य नमस्काररूप मंगल करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा का सूत्र कहते हैंः––––
णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे।
वोच्छामि भावपाहुडमयसेसे संजदे सिरसा।। १।।
वोच्छामि भावपाहुडमयसेसे संजदे सिरसा।। १।।
नमस्कृत्य जिनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवंदितान् सिद्धान्।
वक्ष्यामि भायप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा।। १।।
वक्ष्यामि भायप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा।। १।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि मैं भावपाहुड नामक ग्रन्थको कहूँगा। पहिले क्या करके?
जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर परमदेव तथा सिद्ध अर्थात् अष्टकर्मका नाश करके सिद्धपद को
प्राप्त हुए और अवशेष संयत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इसप्रकार पंचपरमेष्ठी को
मस्तक से वंदना करके कहूँगा। कैसे हैं पंचपरमेष्ठी? नर अर्थात् मनुष्य, सुर अर्थात्
स्वगरवासीदेव, भवनेन्द्र अर्थात् पातालवासी देव, –इनके इन्द्रोंके द्वारा वंदने योग्य हैं।
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सुर–असुर–नरपतिवंद्य जिनवर–इन्द्रने, श्री सिद्धने,
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत–शास्त्रने। १।
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत–शास्त्रने। १।