करूँ भावपाहुडतणीं देशवचनिका सार।। १।।
का सूत्र कहते हैंः––––
वोच्छामि भावपाहुडमयसेसे संजदे सिरसा।। १।।
वक्ष्यामि भायप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा।। १।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि मैं भावपाहुड नामक ग्रन्थको कहूँगा। पहिले क्या करके?
जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर परमदेव तथा सिद्ध अर्थात् अष्टकर्मका नाश करके सिद्धपद को
प्राप्त हुए और अवशेष संयत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इसप्रकार पंचपरमेष्ठी को
मस्तक से वंदना करके कहूँगा। कैसे हैं पंचपरमेष्ठी? नर अर्थात् मनुष्य, सुर अर्थात्
स्वगरवासीदेव, भवनेन्द्र अर्थात् पातालवासी देव, –इनके इन्द्रोंके द्वारा वंदने योग्य हैं।
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत–शास्त्रने। १।