१६४] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे जीव! तूने इस लोकके उदय में वर्तते जो पुद्गल स्कन्ध, उन सबको ग्रसे
अर्थात् ग्रहण किये और उनही को पुनरुक्त अर्थात् बारबार भोगता हुआ भी तृप्ति को प्राप्त न
हुआ।
फिर कहते हैंः––
तिहुवणसलिलं सयलं पीयं तिण्हाए पीडिएण तुमे।
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं।। २३।।
त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णाया पीडितेन त्वया।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम्।। २३।।
अर्थः––हे जीव! तूने इस लोक में तृष्णासे पीड़ित होकर तीन लोकका समस्त जल
पिया, तो भी तृषाका व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिये तू इस संसारका मथन
अर्थात् तेरे संसारका नाश हो, इसप्रकार निश्चय रत्नत्रयका चिन्तन कर।
भावार्थः––संसारमें किसी भी तरह तृप्ति नहीं है, जैसे अपने संसारक अभाव हो वैसे
चिन्तन करना, अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको धारण करना, सेवन करना, यह
उपदेश है।। २३।।
आगे फिर कहते हैंः––
गहिउज्झियाइं मुणिवर कलेवराइं तुमे अणेयाइं।
ताणं णत्थि पमाणं अणंत भवसायरे धीर।। २४।।
गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेयराणि त्वया अनेकानि।
तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर!।। २४।।
अर्थः–– हे मुनिवर! हे धीर! तूने इस अनन्त भवसागरमें कलेवर अर्थात् शरीर
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पीडित तृषाथी तें पीधा छे सर्व त्रिभुवननीरने,
तोपण तृषा छेदाई ना; चिंतव अरे! भवछेदने। २३।
हे धीर! हे मुनिवर! ग्रह्यां–छोड्यां शरीर अनेक तें,
तेनुं नथी परिमाण कंई निःसीम भवसागर विषे। २४।