सः जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम्।। ६१।।
अर्थः––जो भव्यपुरुष जीवको भाता हुआ, भले भावसे संयुक्त हुआ जीवके स्वभावको
जानकर भावे, वह जरा–मरणका विनाश कर प्रगट निर्वाण को प्राप्त करता है।
है। इसलिये इसका यथार्थ स्वरूप जानकर भावना करते हैं वे संसार से निवृत्त होकर मोक्ष
प्राप्त करते हैं।। ६१।।
सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो।। ६२।।
सः जीवः ज्ञातव्यः कर्मक्षयकरणनिमित्तः।। ६२।।
अर्थः––जिन सर्वज्ञदेव ने जीवका स्वरूप इसप्रकार कहा है–––जीव है वह
चेतनासहित है और ज्ञानस्वभाव है, इसप्रकार जीव की भावना करना, जो कर्मके क्षयके निमित्त
जानना चाहिये।
है, जीवको उदासीन नित्य चेतनारूप मानता है उसका निराकरण है और नैयायिकमती गुण–
गुणीका भेद मानकर ज्ञान को सदा भिन्न मानता है उसका निराकरण है। ऐसे जीवके
स्वरूपको भाना कर्मके क्षयका निमित्त होता है, अन्य प्रकार मिथ्याभाव है।। ६२।।