उत्तमबोधि जिससे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उसके लिये दीक्षाकालादिक की निरन्तर भावना
करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।। ११०।।
वैराग्य संपत्तिको, किसी दुःखके अवसर पर प्रगट हुई उदासीनताकी भावनाको, किसी उपदेश
तथा तत्त्वविचारके धन्य अवसर पर जगी पवित्र अंतःभावनाको स्मरणमें रखना, निरन्तर
स्वसन्मुखज्ञातापन को धीरज अर्थ स्मरणमें रखना, भूलना नहीं।
बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।। १११।।
बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम्।। १११।।
अर्थः––हे मुनिवर! तू अभ्यंतरलिंगी शुद्धि अर्थात् शुद्धताको प्राप्त होकर चार प्रकारके
बाह्यलिंगका सेवन कर, क्योंकि जो भावरहित होते हैं उनके प्रगटपने बाह्यलिंग अकार्य है
अर्थात् कार्यकारी नहीं है।
हैं, इसलिये यह उपदेश है–––पहिले भावकी शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारण करो। यह
द्रव्यलिंग चार प्रकारका कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है–––१ मस्तकके, २ दाढ़ीके और ३
मूछोंके केशोंका लोच करना, तीन चिन्ह तो ये और चौथा नीचे के केश रखना; अथवा १ वस्त्र
का त्याग, २ केशोंका लोच करना, ३ शरीरका स्नानादिसे संस्कार न करना, ४ प्रतिलेखन
मयूरपिच्छिका रखना, ऐसे भी चार प्रकारका बाह्यलिंग कहा है। ऐसे सब बाह्य वस्त्रादिकसे
रहित नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धि बिना हँसी का स्थान है और कुछ उत्तम फल भी
नहीं है।। १११।।