पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें। इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा
बहुत है, इनको आदि लेकर यह उत्तर गुण है, इनका पालन भी भावशुद्धि करके करना।
भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिये भाव शुद्ध करके करने
का उपदेश है। ऐसा न जानना कि इनको बाह्यमें करने का निषेध करते हैं। इनको भी करना
और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है। केवल पूजा – लाभादि के लिये, अपना बड़प्पन
दिखाने के लिये करे तो कुछ फल
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं।। ११४।।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम्।। ११४।।
अर्थः––हे मुने! तू प्रथम जो जीवतत्त्व उसका चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्वका
चिन्तन कर, तृतीय आस्रवतत्त्व का चिन्तन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्वका चिन्तन कर, पँचम
संवरतत्त्वका चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन–वचन–काय, कृत–कारित–अनुमोदना से
शुद्ध होकर आत्मस्वरूपका चिन्तन कर; जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म,
अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है।
दूसरा