Ashtprabhrut (Hindi).

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भावपाहुड][२३५
चौरासी लाख उत्तरगुण ऐसे हैं जो आत्माके विभावपरिणामोंके बाह्यकारणोंकी अपेक्षा भेद
होते हैं। उनके अभावरूप ये गुणोंके भेद हैं। उन विभावोंके भेदोंकी गणना संक्षेप से ऐसे है––१
हिंसा, २ अनृत, ३ स्तेय, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १०
भय, ११ जुगुप्सा, १२ अरति, १३ शोक, १४ मनोदुष्टत्व, १५ वचनदुष्टत्व, १६
कायदुष्टत्व, १७ मिथ्यात्व, १८ प्रमाद, १९ पैशून्य, २० अज्ञान, २१ इन्द्रियका अनुग्रह ऐसे
इक्कीस दोष हैं। इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर
चौरासी होते हैं। पृथ्वी – अप् – तेज – वायु प्रत्येक साधारण ये स्थावर ऐकेन्द्रिय जीव छह
और विकल तीन, पंचेन्द्रिय एक ऐसे जीवोंके दस भेद, इनका परस्पर आरम्भ से घात होता है
इनको परस्पर गुणा करने पर सौ
(१००) होते हैं। इनसे चौरासी को गुणा करने पर चौरासी
सौ होते है, इनको दस ‘शील–विराधने’ से गुणा करने पर चौरासी हजार होते हैं। इन दसके
नाम ये हैं १ स्त्रीसंसर्ग, २ पुष्टरसभोजन, ३ गंधमालयका ग्रहण, ४ सुन्दर शयनासनका ग्रहण,
५ भूषणका मंडन, गीतवादित्रका प्रसंग, ७ धनका संप्रयोजन, ८ कुशीलका संसर्ग, ९
राजसेवा, १० रात्रिसंचरण ये ‘शील – विराधना’ है। इनके आलोचना के दस दोष हैं––
गुरुओं के पास लगे हुए दोषोंकी आलोचना करे सो सरल होकर न करे कुछ शल्य रखें,
उसके दस भेद किये हैं, इनके गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं। आलोचना
को आदि देकर प्रायश्चित्तके दस भेद हैं इनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं। सो सब
दोषोंके भेद हैं, इनके अभाव से गुण होते हैं। इनकी भावना रखें, चिन्तन और अभ्यास रखें,
इनकी सम्पूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखें; इसप्रकार इसकी भावना का उपदेश है।
आचार्य कहते हैं कि बारबार बहुत वचनके प्रलापसे तो कुछ साध्य नहीं है, जो कुछ
आत्माके भावकी प्रवृत्तिके व्यवहारके भेद हैं उनकी ‘गुण’ संज्ञा है, उनकी भावना रखना। यहाँ
इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहें हैं, उस परिपाटीसे गुण दोषों का विचार है।
मिथ्यात्व सासादन मिश्र इन तीनोंमें से तो विभाव परिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही
नहीं है। अविरत, देशविरत आदिमें शीलगुणका ऐकदेश आता है। अविरतमें मिथ्यात्व
अनन्तानुबन्धी कषाय के अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागद्वेषका अभावरूप गुण
आता है और देशविरत में कुछ व्रतका एकदेश आता है। प्रमत्तमें महाव्रत सामायिक चारित्र का
एकदेश आता है क्योंकि पापसंबन्धी रागद्वेष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धर्मसंबन्धी राग है और
‘सामायिक’ रागद्वेष के अभाव का नाम है, इसलिये सामायिक का एकदेश ही कहा है। यहाँ
स्वरूपके संमुख होनेमें क्रियाकांडके सम्बन्ध से प्रमाद है, इसलिये ‘प्रमत्त’ नाम दिया है।