मंदिर के नींव और वृक्ष के जड़ होती है उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन है। इसलिये आचार्य
उपदेश देते हैं कि–– हे सकर्ण अर्थात् सत्पुरुषों! सर्वज्ञ के कहे हुए उस दर्शनमूलरूप धर्म
को अपने कानोंसे सुनकर जो दर्शनसे रहित हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं;इसलिये दर्शन हीन की
वंदनामत करो। जिसके दर्शन नहीं है उसके धर्म भी नहीं है; क्योंकि मूल रहित वृक्षके स्कंध,
शाखा, पुष्प, फलादिक कहाँ से होंगे? इसलिये यह उपदेश है कि– जिसके धर्म नहीं है
उससे धर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्मके निमित्त उसकी वंदना किसलिये करें?–ऐसा
जानना।
यह है कि––जो आत्माको संसार से उबार कर सुख स्थान में स्थापित करे सो धर्म है। और
दर्शन अर्थात् देखना। इसप्रकार धर्म की मूर्ति दिखायी दे वह दर्शन है तथा प्रसिद्धि में जिसमें
धर्मका ग्रहण हो ऐसे मत को ‘दर्शन’ कहा है। लोक में धर्मकी तथा दर्शनकी मान्यता
सामान्यरूप से तो सबके है, परन्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूपका जानना नहीं हो सकता;
परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके अन्यथा स्वरूप स्थापित
करके उनकी प्रवृत्ति करते हैं। और जिनमत सवर्ज्ञ की परम्परा से प्रवर्तमान है इसलिये इसमें
यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है।
चारित्ररूप और चौथे जीवों की रक्षारूप ऐसे चार प्रकार हैं। वहाँ निश्चय से सिद्ध किया जाये
तब तो सबमें एक ही प्रकार है, इसलिये वस्तुस्वभाव का तात्पर्य तो जीव नामक वस्तुकी
परमार्थरूप दर्शन–ज्ञान–परिणाममयी चेतना है, और वह चेतना सर्व विकारोंसे रहित शुद्ध–
स्वभावरूप परिणमित हो वही जीव का धर्म है। तथा उत्तमक्षमादि दस प्रकार कहने का तात्पर्य
यह है कि आत्मा क्रोधादि कषायरूप न होकर अपने स्वभाव में स्थिर हो वही धर्म है, यह भी
शुद्ध चेतना रूप हुआ।
कषायोंके वश होकर अपनी या पर की पर्याय के विनाशरूप मरण तथा दुःख, संक्लेश परिणाम
न करे–ऐसा अपना स्वभाव ही धर्म है। इसप्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप निश्चय से साधा हुआ धर्म
एक ही प्रकार है।