ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण।। १५३।।
ते जन्मवल्लीमूलं खनंति वरभावशस्त्रेण।। १५३।।
अर्थः––जो पुरुष परम भक्ति अनुराग से जिनवर के चरणकमलोंको नमस्कार करते हैं
वे श्रेष्ठभावरूप ‘शस्त्र’ से जन्म अर्थात् संसाररूपी बेलके मूल जो मिथ्यात्व आदि कर्म, उनको
नष्ट कर डालते हैं
होता है कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका यह चिन्ह है, इसलिये मालूम होता है कि इसके
मिथ्यात्वका नाश हो गया, अब आगामी संसारकी वृद्धि इसके नहीं होगी, इसप्रकार बताया
है।। १५३।।
तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः।। १५४।।
अर्थः––जैसे कमलिनी का पत्र अपने स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है, वैसे ही
सम्यग्दृष्टि सत्पुरुष है वह अपने भावसे ही क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंमें लिप्त
नहीं होता है।
ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र वडे रखणे। १५३।
ज्यम कमलिनीना पत्रने नहि सलिललेप स्वभावथी,