Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 11-12 (Moksha Pahud).

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२७८] [अष्टपाहुड
ते देह माने ‘हुं’ पणे फरीनेय मोहोदय थकी। ११।
मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ सतो।
मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ।। ११।।
मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्या भावेन भावितः सन्।
मोहोदयेन पुनरपि अंगं मन्यते मनुजः।। ११।।

अर्थः
––यह मनुष्य मोहकर्म के उदयसे
(उदय के वश होकर) मिथ्याज्ञानके द्वारा
मिथ्याभाव से भाया हुआ फिर आगामी जन्ममें इस अंग (देह) को अच्छा समझकर चाहता है।

भावार्थः––मोहकर्मकी प्रकृति मिथ्यात्व के उदय से (उदय के वश होनेसे) ज्ञान भी
मिथ्या होता है; परद्रव्य को अपना जानता है और उस मिथ्यात्व ही के द्वारा मिथ्या श्रद्धान
होता है, उससे निरन्तर परद्रव्य में यह भावना रहती है कि यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे
यह प्राणी आगामी देहको भला जानकर चाहता है।। ११।।

आगे कहते हैं कि जो मुनि देह में निरपेक्ष हैं, देह को नहीं चाहता है, उसमें ममत्व
नहीं करता है वह निर्वाण को पाता हैः–––
जो देहे णिरवेक्खो णिद्दंदो णिम्ममो णिरारंभो।
आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं।। १२।।
यः देहे निरपेक्षः निर्द्वन्दः निर्ममः निरारंभः।
आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम्।। १२।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि देह मेह निरपेक्ष है अर्थात् देहको नहीं चाहता है,
उदासीन है, निर्द्वन्द्व है––रागद्वेषरूप इष्ट–अनिष्ट मान्यता से रहित है, निर्ममत्व है––देहादिक
में ‘यह मेरा’ ऐसी बुद्धि से रहित है, निरारंभ है––इस शरीर के लिये तथा
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१ – मु० सं० प्रति में ‘सं मण्णए’ ऐसा प्राकृत पाठ है जिसका ‘स्वं मन्यते’ ऐसा संस्कृत पाठ है।
रही लीन मिथ्याज्ञानमां, मिथ्यात्वभावे परिणमी,

निर्द्वन्द्व, निर्मम, देहमां निरपेक्ष, मुक्तारंभ जे,
जे लीन आत्मस्वभावमां, ते योगी पामे मोक्षने। १२।