सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंग विराहगो णियटं।। ९८।।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंग विराधकः नियतं।। ९८।।
केवल बाह्यक्रिया – कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्षके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता,
क्योंकि ऐस मुनि निश्चय से जिनलिंग विराधक है।
निरोध ५, छह आवश्यक ६, भूमिशयन १, स्नानका त्याग ५, वस्त्रका त्याग १, केशलोच १,
एकबार भोजन १, खड़ा भोजन १, दंतधोवनका त्याग १, इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं,
इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओंसे मुक्ति
नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि –––हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण
बिगड़े तो बिगड़ो, हम मोक्षमार्गी ही हैं–––तो ऐसी श्रद्धानसे तो जिन–आज्ञा भंग करने से
सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और [तीव्र कषायवान हो जाय तो] कर्म के
प्रबल उदयसे चारित्र भ्रष्ट हो। और यदि जिन–आज्ञाके अनुसार श्रद्वान रहे तो सम्यक्त्व रहता
है किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व बिना केवल मूलगुण
बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।