३३४] [अष्टपाहुड योग्य नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना बाह्यक्रिया का फल संसार ही है।। ९७।। आगे आशंका उत्पन्न होती है कि सम्यक्त्व बिना बाह्यलिंग निष्फल कहा, जो बाह्यलिंग मूलगुण बिगाड़े उसके सम्यक्त्व रहता या नहीं? इसका समाधान कहते हैंः–––
मूलगुणं छिलूण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंग विराहगो णियटं।। ९८।।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणलिंग विराहगो णियटं।। ९८।।
मूलगुणं छित्वा च बाह्यकर्म करोति यः साधुः।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंग विराधकः नियतं।। ९८।।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिणलिंग विराधकः नियतं।। ९८।।
अर्थः––जो मुनि निग्रर्थं होकर मूलगुण धारण करता है, उनका छेदनकर, बिगाड़कर
केवल बाह्यक्रिया – कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्षके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता,
क्योंकि ऐस मुनि निश्चय से जिनलिंग विराधक है।
भावार्थः––जिन आज्ञा ऐसी है कि –––सम्यक्त्वसहित मूलगुण धारण अन्य जो साधु
केवल बाह्यक्रिया – कर्म करता है वह सिद्धि अर्थात् मोक्षके सुख को प्राप्त नहीं कर सकता,
क्योंकि ऐस मुनि निश्चय से जिनलिंग विराधक है।
भावार्थः––जिन आज्ञा ऐसी है कि –––सम्यक्त्वसहित मूलगुण धारण अन्य जो साधु
क्रिया हैं उनको करते हैं। मूलगुण अट्ठाईस कहे हैंः–– पाँच महाव्रत, पाँच समिति, इन्द्रियोंका
निरोध ५, छह आवश्यक ६, भूमिशयन १, स्नानका त्याग ५, वस्त्रका त्याग १, केशलोच १,
एकबार भोजन १, खड़ा भोजन १, दंतधोवनका त्याग १, इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं,
इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओंसे मुक्ति
नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि –––हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण
बिगड़े तो बिगड़ो, हम मोक्षमार्गी ही हैं–––तो ऐसी श्रद्धानसे तो जिन–आज्ञा भंग करने से
सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और [तीव्र कषायवान हो जाय तो] कर्म के
प्रबल उदयसे चारित्र भ्रष्ट हो। और यदि जिन–आज्ञाके अनुसार श्रद्वान रहे तो सम्यक्त्व रहता
है किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व बिना केवल मूलगुण
बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।
प्रश्नः–––मुनिके स्नान का त्याग कहा और हम ऐसे भी सुनते हैं कि यदि चांडाल
निरोध ५, छह आवश्यक ६, भूमिशयन १, स्नानका त्याग ५, वस्त्रका त्याग १, केशलोच १,
एकबार भोजन १, खड़ा भोजन १, दंतधोवनका त्याग १, इसप्रकार अट्ठाईस मूलगुण हैं,
इनकी विराधना करके कायोत्सर्ग मौन तप ध्यान अध्ययन करता है तो इन क्रियाओंसे मुक्ति
नहीं होती है। जो इसप्रकार श्रद्धान करे कि –––हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण
बिगड़े तो बिगड़ो, हम मोक्षमार्गी ही हैं–––तो ऐसी श्रद्धानसे तो जिन–आज्ञा भंग करने से
सम्यक्त्वका भी भंग होता है तब मोक्ष कैसे हो; और [तीव्र कषायवान हो जाय तो] कर्म के
प्रबल उदयसे चारित्र भ्रष्ट हो। और यदि जिन–आज्ञाके अनुसार श्रद्वान रहे तो सम्यक्त्व रहता
है किन्तु मूलगुण बिना केवल सम्यक्त्व ही से मुक्ति नहीं है और सम्यक्त्व बिना केवल मूलगुण
बिना केवल क्रिया ही से मुक्ति नहीं है, ऐसे जानना।
प्रश्नः–––मुनिके स्नान का त्याग कहा और हम ऐसे भी सुनते हैं कि यदि चांडाल
आदिका स्पर्श हो जावे तो दंडस्नान करते हैं।
समाधानः––– जैसे गृहस्थ स्नान करता है वैसे स्नान करने का त्याग है, क्योंकि ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे मूळगुणने छेदीने मुनि बाह्यकर्मो आचरे,
पामे न शिवसुख निश्चये जिन कथित–लिंग–विराधने। ९८।