३३६] [अष्टपाहुड
जदि पढदि बहु सुदाणि य जदि काहिदि बहुविहं च चारित्तं।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरींद।। १००।।
तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरींद।। १००।।
यदि पठति बहुश्रुतानि च यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रं।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम्।। १००।।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम्।। १००।।
अर्थः––जो आत्मसवभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढ़गा ओर बहुत प्रकारके
चारित्रका आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा। आत्मस्वभावसे
विपरीत शास्त्रका पढ़ना और चारित्रका आचरण करना ये सब ही बालश्रुत और बालचारित्र हैं
, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नो पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है,
और बाह्य मूलगुणरूप चारित्र पालता है तो भी मोक्ष योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१००।।
आगे कहते हैं कि ऐसा साधु मोक्ष पाता हैः–––
वेरग्गपरो साहु परदव्वपरम्मुहो य जो होदि।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्ध सुहसु अणुरत्तो।। १०१।।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्ध सुहसु अणुरत्तो।। १०१।।
गुणगणविहूसियंगो हेयोपादेयणिच्छिदो साहू।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।। १०२।।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।। १०२।।
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पुष्कळ भणे श्रुतने भले, चारित्र बहुविध आचरे,
छे बालश्रुत ने बाळचारित, आत्मथी विपरीत जे। १००।
जे साधु छे वैराग्यपर ने विमुख परद्रव्यो विषे,
भवसुखविरक्त, स्वकीयशुद्ध सुखो विषे अनुरक्त जे। १०१।
आदेयहेय–सुनिश्चयी, गुणगणविभूषित–अंग जे,
ध्यानाध्ययनरत जेह, ते मुनि स्थान उत्तमने लहे, १०२।