तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरींद।। १००।।
तत् बालश्रुतं चरणं भवति आत्मनः विपरीतम्।। १००।।
अर्थः––जो आत्मसवभावसे विपरीत बाह्य बहुत शास्त्रोंको पढ़गा ओर बहुत प्रकारके
चारित्रका आचरण करेगा तो वह सब ही बालश्रुत और बालचारित्र होगा। आत्मस्वभावसे
विपरीत शास्त्रका पढ़ना और चारित्रका आचरण करना ये सब ही बालश्रुत और बालचारित्र हैं
, अज्ञानी की क्रिया है, क्योंकि ग्यारह अंग और नो पूर्व तक तो अभव्य जीव भी पढ़ता है,
और बाह्य मूलगुणरूप चारित्र पालता है तो भी मोक्ष योग्य नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१००।।
संसारसुहविरत्तो सगसुद्ध सुहसु अणुरत्तो।। १०१।।
झाणज्झयणे सुरदो सो पावइ उत्तमं ठाणं।। १०२।।
जे साधु छे वैराग्यपर ने विमुख परद्रव्यो विषे,
भवसुखविरक्त, स्वकीयशुद्ध सुखो विषे अनुरक्त जे। १०१।