Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 105 (Moksha Pahud).

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मोक्षपाहुड][३३९ सो आचार्य विचार करते हैं कि जो इस देहमें आत्मा स्थिति है सो यद्यपि [स्वयं]कर्म आच्छादित है तो भी पाँचों पदोंके योग्य हैं, इसीके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करना पाँचों पदोंका ध्यान है, इसलिये मेरे इस आत्माही का शरण है ऐसी भावना की है पँचपरमेष्ठी का ध्यान रूप अंतमंगल बताया है।। १०४।। आगे कहते हैं कि जो अंतसमाधिमरण में चार आराधना का आराधन कहा है यह भी आत्मा ही की चेष्टा है, इसलिये आत्मा ही का मेरे शरण हैः–––

सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चैव।
चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। १०५।।
सम्यक्त्वं सइझानं सच्चारित्रं हि सत्तपः चैव।
चत्त्वारः तिष्ठंति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०५।।

अर्थः
––सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक तप ये चार आराधन हैं, ये
भी आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, ते चारों आत्मा ही की अवस्था है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि
मेरे आत्मा ही का शरण है।। १०५।।[भगवती आराधना गाथा नं० २]

भावार्थः––आत्माका निश्चय–व्यवहारात्मक तत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणाम सम्यग्दर्शन है, संशय विमोह विभ्रम रहित और निश्चयव्यवहार से निजस्वरूप का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानसे तत्त्वार्थोंको जानकर रागद्वेषादिक रहित परिणाम होना सम्यक्चारित्र है, अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्टका आदर कर स्वरूपका साधना सम्यक्तप है, इसप्रकार ये चारों ही परिणाम आत्मा के हैं, इसलिये आचार्य कहते हैं कि मेरे आत्मा ही का शरण है, इसी की भावना में चारों आ गये।

अंतसल्लेखना में चार आराधना का आराधन कहा है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चारों का उद्योत, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण ऐसे पंचप्रकार आराधना कही है, वह आत्मा को भाने में (– आत्माकी भावना–एकाग्रता करने में) चारों आ गये, ऐसे अंतसल्लेखना की भावना इसी में आ गई ऐसे जानना तथा आत्मा ही परममंगलरूप है ऐसा भी बताया है।। १०५

आगे यह मोक्षपाहुड ग्रंथ पूर्व किया, इसके पढ़ने सुनने भाने का फल कहते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––

सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सत्चारित्र, सत्तप चरण जे,
चारेय छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारूं खरे। १०५।