छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।। ८।।
छिन्दन्ति चतुर्गतिं तपोगुण युक्ताः न संदेहः।। ८।।
अर्थः––जो ज्ञान को जानकर और विषयों से विरक्त होकर ज्ञानकी बारबार अनुभवरूप
भावना सहित होते हैं वे तप और गुण अर्थात् मूलगुण उत्तरगुणयुक्त होकर चतुर्गतिरूप संसार
को छेदते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
होता है––यह शीलसहित ज्ञानरूप मार्ग है।। ८।।
तह जीवो वि विसुद्धं णाणविसलिलेण विमलेण।। ९।।
तथा जीवोऽपि विशुद्धः ज्ञानविसलिलेन विमलेन।। ९।।
अर्थः––जैसे कांचन अर्थात् सुवर्ण खडिया अर्थात् सुहागा [– खडिया क्षार] और नमक
के लेप से विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होता है वैसे ही जीव भी विषय–कषायों के मलरहित
निर्मल ज्ञानरूप जलसे प्रक्षालित होकर कर्मरहित विशुद्ध होता है।
निःशंक ते तप गुण सहित छेदे चतुर्गतिभ्रमणने। ८।
धमतां लवण–खडी लेपपूर्वक कनक निर्मळ थाय छे,