दर्शनपाहुड][१७
अर्थः––जिस पुरुषके हृदयमें सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह निरन्तर प्रवर्तमान है उसके कर्मरूपी रज–धूलका आवरण नहीं लगता, तथा पूर्वकालमें जो कर्मबंध हुआ हो वह भी नाशको प्राप्त होता है। भावार्थः––सम्यक्त्वसहित पुरुषको (निरंतर ज्ञानचेतनाके स्वामित्वरूप परिणमन है इसलिये) कर्मके उदयसे हुए रागादिक भावोंका स्वामित्व नहीं होता, इसलिये कषायों की तीव्र कलुषता से रहित परिणाम उज्ज्वल होते हैं; उसे जल की उपमा है। जैसे –जहाँ निरंतर जलका प्रवाह बहता है वहाँ बालू–रेत–रज नहीं लगती; वैसे ही सम्यक्त्वी जीव कर्मके उदय को भोगता हुआ भी कर्मसे लिप्त नहीं होता। तथा बाह्य व्यवहार की अपेक्षासे ऐसा भी तात्पर्य जानना चाहिये कि –जिसके हृदय में निरंतर सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह बहता है वह सम्यक्त्वी पुरुष इस कलिकाल सम्बन्धी वासना अर्थात् कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रको नमस्कारादिरूप अतिचाररूपरज भी नहीं लगता, तथा उसके मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंका आगामी बंध भी नहीं होता।। ७।। अब, कहते हैं कि –जो दर्शनभ्रष्ट हैं तथा ज्ञान–चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु दूसरोंको भी भ्रष्ट करते हैं, ––यह अनर्थ हैः––––
एदे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति।। ८।।
अर्थः––जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट है तथा ज्ञान–चारित्र मेह भी भ्रष्ट है वे पुरुष भ्रष्टोंमें
दर्शन से भ्रष्ट हैं तथापि ज्ञान–चारित्रका भली भाँति पालन करते हैं; और जो दर्शन–ज्ञान–
चारित्र इन तीनोंसे भ्रष्ट हैं वे तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु शेष अर्थात्
अपने अतिरिक्त अन्य जनोंको भी नष्ट करते हैं।