३८६] [अष्टपाहुड
सम्मत्तणाण दंसण तववीरयि पंचयारमप्पाणं।
जलणो वि पवण सहिदो डहंति पोरायणं कम्मं।। ३४।।
जलणो वि पवण सहिदो डहंति पोरायणं कम्मं।। ३४।।
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचाराः आत्मनाम्।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म।। ३४।।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म।। ३४।।
अर्थः––सम्यक्त्व–ज्ञान–दर्शन–वीर्य ये पँच आचार है वे आत्मा का आश्रय पाकर
पुरातन कर्मोंको वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सुखे ईंधन को दग्ध
कर देती है।
भावार्थः––यहाँ सम्यक्त्व आदि पँच आचार तो अग्निस्थानीय हैं और आत्मा के त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव को शील कहते हैं, यह आत्मा का स्वभाव पवनस्थानीय है, वह पँच आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके आत्मा को शुद्ध करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचारों में चारित्र कहा है और यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना।। ३४।। आगे कहते हैं कि ऐसे अष्ट कर्मोंको जिनने दग्ध किये वे सिद्ध हुए हैंः–––
णिद्दड्ढ अट्ठकम्मा विसयविरत्ता जिदिंदिया धीरा।
तवविणयशीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता।। ३५।।
तवविणयशीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता।। ३५।।
निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेंद्रिया धीराः।
तपोविनयशील सहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः।। ३५।।
तपोविनयशील सहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः।। ३५।।
अर्थः––जिन पुरुषों ने इन्द्रियोंको जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं,
और धीर हैं, परिषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शीलसहित हैं वे
अष्ट कर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
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सम्यक्त्व–दर्शन–ज्ञान–तप–वीर्याचरण आत्मा विषे,
पवने सहित पावक समान, दहे पुरातन कर्मने। ३४।
विजितेन्द्रि विषय विरक्त थई, धरीने विनय–तप–शीलने,
विजितेन्द्रि विषय विरक्त थई, धरीने विनय–तप–शीलने,
धीरा दही वसु कर्म, शीवगतिप्राप्त सिद्ध प्रभु बने। ३५।