आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके
आत्मा को शुद्ध करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचारों में चारित्र कहा है और
यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना।। ३४।।
जलणो वि पवण सहिदो डहंति पोरायणं कम्मं।। ३४।।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म।। ३४।।
अर्थः––सम्यक्त्व–ज्ञान–दर्शन–वीर्य ये पँच आचार है वे आत्मा का आश्रय पाकर
पुरातन कर्मोंको वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सुखे ईंधन को दग्ध
कर देती है।
तवविणयशीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता।। ३५।।
तपोविनयशील सहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः।। ३५।।
अर्थः––जिन पुरुषों ने इन्द्रियोंको जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं,
और धीर हैं, परिषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शीलसहित हैं वे
अष्ट कर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
विजितेन्द्रि विषय विरक्त थई, धरीने विनय–तप–शीलने,