दर्शनपाहुड][१९
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति।। १०।।
तथा जिनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टाः न सिद्धयन्ति।। १०।।
अर्थः––जिस प्रकार वृक्षका मूल विनष्ट होनेपर उसके परिवाय अर्थात् स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फलकी वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शनसे भ्रष्ट हैं–बाह्यमें तो नग्न– दिगम्बर यथाजातरूप निग्रन्थ लिंग, मूलगुणका धारण, मयूर पिच्छिका की पींछी तथा कमण्डल धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खडे़ खडे़ शुद्ध आहार लेना –इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं, तथा अंतरंग में जीवादि छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्वोंका यर्थाथ श्रद्धान एवं भेदविज्ञानसे आत्मस्वरूपका अनुभवन –ऐसे दर्शन मत से बाह्य हैं वे मूल विनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफलको प्राप्त नहीं करते। अब कहते हैं कि –जिनदर्शन ही मूल मोक्षमार्ग हैः–––
तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स।। ११।।
तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य।। ११।।
अर्थः––जिसप्रकार वृक्षके मूल से स्कंध होते हैं; कैसे स्कंध होते हैं कि –जिनके शाखा आदि परिवार बहुत गुण हैं। यहाँ गुण शब्द बहुतका वाचक है; उसीप्रकार गणधर देवाधिकने जिनदर्शनको मोक्षमार्ग का मूल कहा है। भावार्थः––जहाँ जिनदर्शन अर्थात् तीर्थंकर परमदेवने जो दर्शन ग्रहण किया उसीका उपदेश दिया है; वह अट्ठाईस मूलगुण सहित कहा है। पांच महाव्रत, ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जिनदर्शनात्मक मूल होय विनिष्ट तो सिद्धि नहीं। १०।