३२][अष्टपाहुड
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो तप सहित श्रमणपना धारण करते हैं उनको तथा उनके शीलको, उनके गुणको व ब्रह्मचर्यको मैं सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से नमस्कार करता हूँ क्योंकि उनके उन गुणोंसे – सम्यक्त्व सहित शुद्धभावसे सिद्धि अर्थात् मोक्ष उसके प्रति गमन होता है। भावार्थः––पहले कहा कि –देहादिक वंदने योग्य नहीं है, गुण वंदने योग्य हैं। अब यहाँ गुण सहित की वंदना की है। वहाँ जो तप धारण करके गृहस्थपना छोड़कर मुनि हो गये हैं उनको तथा उनके शील–गुण–ब्रह्मचर्य सम्यक्त्व सहित शुद्धभावसे संयुक्तहों उनकी वंदना की है। यहाँ शील शब्दसे उत्तरगुण और गुण शब्दसे मूलगुण तथा ब्रह्मचर्य शब्दसे आत्मस्वरूप में मग्नता समझना चाहिये ।।२८।। आगे कोई आशंका करता है कि– संयमी को वंदने योग्य कहा तो समवसरणादि विभूति सहित तीर्थंकर हैं वे वंदने योग्य हैं या नहीं? उसका समाधान करने के लिये गाथा कहते हैं कि– जो तीर्थंकर परमदेव हैं वे सम्यक्त्वसहित तप के माहात्म्यसे तीर्थंकर पदवी पाते हैं वे वंदने योग्य हैंः–
अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणीणमित्तो।। २९।।
अर्थः––जो चौसठ चंवरोंसे सहित हैं, चौंतीस अतिशय सहित हैं, निरन्तर बहुत प्राणियोंका हित जिनसे होता है ऐसे उपदेश के दाता हैं, और कर्मके क्षय का कारण हैं ऐसे तीर्थंकर परमदेव हैं वे वंदने योग्य हैं। भावार्थः––यहाँ चौसठ चँवर चौंतीस अतिशय सहित विशेषणोंसे तो तीर्थंकरका प्रभुत्व बताया है और प्राणियोंका हित करना तथा कर्मक्षयका कारण विशेषणसे दूसरे –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १॰ अणुचरबहुसत्तहिओ (अनुचरबहुसत्त्वहितः) मुद्रित षट्प्राभृतमें यह पाठ है। २॰ ‘निमित्ते’ मुद्रित षट्प्राभृतमेझ ऐसा पाठ है।