३४][अष्टपाहुड
भावार्थः––चारित्रसे निर्वाण होता है और चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होता है तथा ज्ञान
सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होता है इसप्रकार विचार करने से सम्यक्त्वके सारपना आया। इसलिये
पहिले तो सम्यक्त्व सार है, पीछे ज्ञान चारित्र सार हैं। पहिले ज्ञानसे पदार्थोंको जानते हैं अतः
पहिले ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व बिना उसका भी सारपना नहीं है, ऐसा जानना ।।३१।।
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैंः–
णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण।
१चोउण्हं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण सन्देहो।। ३२।।
ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन।
चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः।। ३२।।
अर्थः––ज्ञान और दर्शनके होनेपर सम्यक्त्व सहित तप करके चारित्रपूर्वक इन चारों का
समायोग होने से जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है।
भावार्थः––पहिले जो सिद्ध हुए हैं वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के
संयोग से ही हुए हैं यह जिनवचन हैं, इसमें संदेह नहीं है ।।३२।।
आगे कहते हैं कि –लोकमें सम्यग्दर्शनरूप रत्न अमोलक है वह देव–दानवोंसे पूज्य
हैः–
कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं।
सम्मद्दंसणरयणं अग्धेदि सुरासुरे लोए।। ३३।।
कल्याणपरंपरया लभंते जीवाः विशुद्धसम्यक्त्वम्।
सम्यग्दर्शनरत्नं अर्ध्यते सुरासुरे लोके।। ३३।।
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१॰ पाठान्तरः– चोण्हं
१दृग–ज्ञानथी, सम्यक्त्वयुत चारित्रथी ने तप थकी,
–ए चारना योगे जीवो सिद्धि वरे, शंका नथी। ३२।
कल्याण श्रेणी साथ पामे क्वव समकित शुद्धने;
सुर–असुर केरा लोकमां सम्यक्त्वरत्न पुजाय छे। ३३।