तथा अन्य पटादि में घटका आरोपण करके घट कहना भी व्यवहार है।
हुई उसको घट स्वरूप कहना वह निमित्ताश्रित है। इसप्रकार विवक्षित जीव–अजीव वस्तुओं पर
लगाना। एक आत्मा ही को प्रधान करके लगाना अध्यात्म है। जवि सामान्यको भी आत्मा कहते
हैं। जो जीव अपने को सब जीवोंसे भिन्न अनुभव करे उसको भी आत्मा कहते हैं। जब अपने
को सबसे भिन्न अनुभव करके, अपने पर निश्चय लगावे तब इसप्रकार जो आप अनादि–
अनन्त अविनाशी सब अन्य द्रव्यों से भिन्न, एक सामान्य–विशेषरूप, अनन्तधर्मात्मक, द्रव्य–
पर्यायात्मक जीव नामक शुद्ध वस्तु है, वह कैसा है–––
ये चेतना के विशेष हैं वह तो गुण हैं और अगुरुलघु गुणके द्वारा षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप
परिणमन करते हुए जीवके त्रिकालात्मक अनन्त पर्यायें हैं। इसप्रकार शुद्ध जीव नामक वस्तु को
सर्वज्ञ ने देखा, जैसा आगम में प्रसिद्ध है, वह तो एक अभेद रूप शुद्ध निश्चयनयका विषयभूत
जीव है, इस दृष्टि से अनुभव करे तब तो ऐसा है और अनन्त धर्मों में भेदरूप किसी एक धर्म
को लेकर कहना व्यवहार है।
होता है। इसप्रकार अनादि निमित्त–नैमित्तिक भाव के द्वारा चतुर्गतिरूप संसार भ्रमण की प्रवृत्ति
होती है। जिस गति को प्राप्त हो वैसा ही नामका जीव कहलाता है तथा जैसा रागादिक भाव
हो वैसा नाम कहलाता है। जब द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावकी बाह्यअंतरंग सामग्रीके निमित्त से
अपने शुद्धस्वरूप शुद्धनिश्चयनयके विषय स्वरूप अपनेको जानकर श्रद्धान करे और कर्म
संयोगको तथा उसके निमित्त से अपने भाव होते हैं उनका यथार्थ स्वरूप जाने तब भेदज्ञान
होता है, तब ही परभावोंसे विरक्ति होती है। फिर उनको दूर करने का उपाय सर्वज्ञके आगम
से यथार्थ समझकर उसको कर्मोंका क्षय करके लोकशिखर पर जाकर विराजमान जो जाता है
तब मुक्त या सिद्ध कहलाता है।