Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 11-12 Sutra: Pahud.

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सूत्रपाहुड][५५
भावार्थः––जो मृगचर्म, वृक्षके बल्कल, कपास पट्ट दुकूल, रोमवस्त्र, टाटके और तृणके
वस्त्र इत्यादिक रखकर अपने को मोक्षमार्गी मानते हैं तथा इसकाल में जिनसूत्र से च्युत हो
गये हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से अनेक भेष चलाये हैं, कई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कई रक्त
वस्त्र, कई पीले वस्त्र, कई टाटके वस्त्र आदि रखते हैं, उनके मोक्षमार्ग नहीं क्योंकि जिनसूत्र
में तो एक नग्न दिगम्बर स्वरूप पाणिपात्र भोजन करना इसप्रकार मोक्ष मार्ग में कहा है, अन्य
सब भेष मोक्षमार्ग नहीं है ओर जो मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं ।।१०।।

आगे दिगम्बर मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करते हैंः––
जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओवि।
सो होइ वंदणीओ ससुरासुरमाणुसे लोए।। ११।।
यः संयमेषु सहितः आरंभपरिग्रहेषु विरतः अपि।
सः भवति वंदनीयः ससुरासुरमानुषे लोके।। ११।।

अर्थः––जो दिगम्बर मुद्रा का धारक मुनि इन्द्रिय–मनको वशमें करना, छहकायके
जीवोंकी दया करना, इसप्रकार संयम सहित हो और आरम्भ अर्थात् गृहस्थके सब आरम्भों से
तथा बाह्य–अभ्यन्तर परिग्रह विरक्त हो, इनमें नहीं प्रवर्ते तथा ‘अपि’ शब्द से ब्रह्मचर्य आदि
गुणोंसे युक्त हो वह देव–दानव सहित मनुष्यलोक में वंदने योग्य है, अन्य भेषी परिग्रह–
आरंभादिसे युक्त पाखंण्डी
(ढोंगी) वंदने योग्य नहीं है।।११।।

आगे फिर उनकी प्रवृत्तिका विशेष कहते हैंः––
जे बावीस परीसह सहंति सचीसएहिं संजुत्ता।
ते होंदि
वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू।। १२।।
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१ पाठान्तर– होंदि
जे क्वव संयमयुक्त ने आरंभपरिग्रह विरत छे,
ते देव–दानव –मानवोना लोकत्रयमां वंद्य छे। ११।

बावीश परिषहने सहे छे, शक्तिशतसंयुक्त जे,
ते कर्मक्षय ने निर्जरामां निपुण मुनिओ वंद्य छे। १२।