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ज्ञायकनी स्वानुभूति विना ‘ज्ञान’ होय नहि अने ज्ञायकना द्रढ आलंबने आत्मद्रव्य स्वभावरूपे परिणमीने जे स्वभावभूत क्रिया थाय ते सिवाय ‘क्रिया’ छे नहि. पौद्गलिक क्रिया आत्मा क्यां करी शके छे? जडनां कार्ये तो जड परिणमे छे; आत्माथी जडनां कार्य कदी न थाय. ‘शरीरादिनां कार्य ते मारां नहि अने विभावकार्यो पण स्वरूप- परिणति नहि, हुं तो ज्ञायक छुं’ — आवी साधकनी परिणति होय छे. साचा मोक्षार्थीने पण पोताना जीवनमां आवुं घूंटाई जवुं जोईए. भले प्रथम सविकल्पपणे हो, पण एवो पाको निर्णय करवो जोईए. पछी जलदी अंतरनो पुरुषार्थ करे तो जलदी निर्विकल्प दर्शन थाय, मोडो करे तो मोडुं थाय. निर्विकल्प स्वानुभूति करी, स्थिरता वधारतां वधारतां, जीव मोक्षने प्राप्त करे छे. — आ विधि सिवाय मोक्ष प्राप्त करवानी अन्य कोई विधि नथी. ३५०.
कोई पण प्रसंगमां एकाकार न थई जवुं. मोक्ष सिवाय तारे शुं प्रयोजन छे? प्रथम भूमिकामां पण ‘मात्र मोक्ष-अभिलाष’ होय छे.
जे मोक्षनो अर्थी होय, संसारथी जेने थाक