तेना परनी द्रष्टि छोडी दे; आत्मा आडंबर विनानो, निर्विकल्प छे, त्यां द्रष्टि दे; चैतन्यरमणता विनाना विकल्पकोलाहलमां तने थाक लागशे, विसामो नहि मळे; तारुं विश्रामगृह छे आत्मा, तेमां जा तो तने थाक नहि लागे, शान्ति मळशे. १८३.
चैतन्य तरफ वळवानो प्रयत्न थतां तेमां ज्ञाननी वृद्धि, दर्शननी वृद्धि, चारित्रनी वृद्धि — सर्ववृद्धि थाय छे, अंतरमां आवश्यक, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, व्रत, तप बधुं प्रगटे छे. बहारना क्रियाकांड तो परमार्थे कोलाहल छे. शुभ भाव भूमिका प्रमाणे आवे छे पण ते शान्तिनो मार्ग नथी. स्थिर थई अंदर बेसी जवुं ते ज करवानुं छे. १८४.
मुनिराज कहे छेः — चैतन्यपदार्थ पूर्णताथी भरेलो छे. तेनी अंदरमां जवुं अने आत्मसंपदानी प्राप्ति करवी ते ज अमारो विषय छे. चैतन्यमां स्थिर थई अपूर्वतानी प्राप्ति न करी, अवर्णनीय समाधि प्राप्त न करी, तो अमारो जे विषय छे ते अमे प्रगट न कर्यो. बहारमां उपयोग आवे छे त्यारे द्रव्यगुणपर्यायना विचारोमां रोकावुं थाय छे, पण खरेखर ते अमारो विषय नथी.