२२८ मार्ग बताया। कितने जीवोंको तैयार किया है।
मुमुक्षुः- यहीं सुना और आत्माकी स्वतंत्रताका ढिंढोरा गुरुदेवके सिवा किसीने पीटा नहीं है।
समाधानः- कोई नहीं। वह तो नक्की है। गुरुदेवने ही स्वतंत्रता बतायी। मुक्तिका मार्ग उन्होंने ही बताया है। कोई आत्मा समझता ही नहीं थे। क्रियामें ही धर्म मानते थे। स्वतंत्र अपनेआप होता है। गुरुदेवने स्वयंने कहा है। स्वतंत्र है फिर निमित्त उपादानका ऐसा सम्बन्ध है कि गुरुकी वाणी, देवकी वाणी मिले तब जीव अंतरमें अपने उपादानसे तैयार होता है।
मुमुक्षुः- ..आपकी देशना आज हमें मिली, हमारा अहोभाग्य!
समाधानः- नक्की स्वयंको करना है। स्वयंको नक्की करना बाकी रहता है। अन्दरमें ज्ञायक हूँ, यह नक्की करना, प्रतीत करना स्वयंको है। अभी तो पहले सत्य क्या है, यह नक्की करे। फिर मैं यह ज्ञायक ही हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, स्वभावको ग्रहण करना और उसकी प्रतीति करना अलग बाकी रहता है। पुनः अंतरमें ऊतरकर स्वानुभूति करनी, वह उससे भी विशेष करना बाकी रहता है।
मुमुक्षुः- अनन्त-अनन्त आपका उपकार है।
समाधानः- ऋद्धि आत्मामें भरी है, बाहर कहीं नहीं है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- पंचमकालमें पधारे और ऐसी वाणी बरसायी, सबको मार्ग मिला। प्रभु सुवर्णपुरी मांही, अचिंत्य ज्ञान खीलवे, सूक्ष्म न्यायो प्रकाशे, ज्ञानज्योति ... राग भूल जाते हैं। मुखथी छूटे छे ध्वनि, अमृत समी...
मुमुक्षुः- वर्तमानमें तो संयोग है, ज्ञानीका योग है। शास्त्र, देव-गुरु-शास्त्रका योग है और उससे हो। ये जो विचारना है, ऐसा विचार तो सूझता है। लेकिन उस विचारमें, ज्ञायकका अभ्यास करना चाहिये, ऐसा जो आप कहते हो, तो उसकी पूर्वतैयारी कैसी- कैसी होती है?
समाधानः- पूर्वतैयारी, उसीकी महिमा, उसकी लगन लगनी चाहिये न। उसे रस ऊतर जाय, विभावका रस ऊतर जाय। ये सब जो है, विभाव है वह सारभूत नहीं है। सारभूत और सर्वस्व हो तो आत्मा ही है। ऐसी रुचि, महिमा, लगन ऐसा होना चाहिये। अपना स्वभाव कैसे पहचानमें आये? उसका गहरा मंथन, ऐसा सब पहले होना चाहिये।