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अंतर्गत परिणतिमेंसे यथार्थ दृष्टि और यथार्थ प्रतीति ऐसी हुयी है कि जिसने वह प्रगट किया, उस पर उसे उतनी ही महिमा आती है। शुभभाव आदरणीय नहीं मानता है, तो भी शुभभावमें जब वह खडा है, तब उसे हेयबुद्धि (वर्तती है) कि ये मेरा स्वभाव भिन्न और ये विकल्प भिन्न है। तो भी उस शुभभावमें जो निमित्त हैं ऐसे देव-गुरु-शास्त्र पर उसे महिमा भी उतनी ही आती है। क्योंकि उसे स्वभावकी उतनी महिमा है और विभाव तुच्छ लगा है। इसलिये उसने जो प्रगट किया है और जो उसकी साधना करते हैं, उस पर उसे महिमा भी उतनी ही आती है। उसकी महिमाका कारण है कि स्वयंको स्वभावकी महिमा है। इसलिये जिन्होंने स्वभाव प्राप्त किया उस पर उसे महिमा, यथार्थ महिमा आती है।
अंतर दृष्टिमें (ऐसा है कि) शुभभाव मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसा मानता है। उसी क्षण भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। तो भी उसे शुभभावमें पुण्य आदरणीय नहीं है। शुभभावका रस उसे बहुत पडता है और स्थिति कम पडती है।
मुमुक्षुः- आपने ही बात कही थी कि जिसे अपनी महिमा आयी है, उसे ही सच्चे निमित्तका पूरी महिमा आती है।
समाधानः- यथार्थ अपनी महिमा आये उसे देव-गुरु-शास्त्रकी यथार्थ महिमा आती है।