५० होते, सूक्ष्म-सूक्ष्म होता जाता है। ज्ञेयसे भिन्न पडा, वह स्थूल। फिर रागसे भिन्न पडा, थोडा आगे चला तो गुणभेद, पर्यायभेद, उससे उपयोग सूक्ष्म किया। उससे सूक्ष्म एक द्रव्यको ग्रहण करना वह है।
मुमुक्षुः- पहले द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुका यथार्थ स्वरूप सविकल्प दशामें प्रतीतिरूप आये और फिर मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रतीतिमें आवे, ऐसा कोई क्रम है?
समाधानः- उसे विचारकी विधिमें ऐसा क्रम पडता है। ज्ञायक हूँ, ऐसे ग्रहण हो वह अलग है। वास्तवमें तो वह ग्रहण करनेका है। उसके विचारकी विधिमें ऐसा नक्की करे। शास्त्रमें भी आता है न कि प्रथम सुदृष्टि सो विचार किजे भिन्न। सूक्ष्म शरीर भिन्न जाने और विकल्पकी उपाधि भिन्न जाने। सुबुद्धिका विलास भिन्न जाने। वह क्रम आता है, लेकिन ग्रहण तो एकको करनेका है।
सच्चा ग्रहण किया उसे कहें कि जो एकको ग्रहण किया वह। उपयोग धीरे-धीरे सूक्ष्म-सूक्ष्म होता जाता है, आगे जाता है तब। ज्ञायक ग्रहण हो तो सब क्रम उसे एकसाथ आ जाता है। स्थूल और सूक्ष्म। एकदम हो जाय, एकदम ज्ञायक ग्रहण हो जाय, जल्दी हो जाय..
मुमुक्षुः- ऐसा भी बने?
समाधानः- हाँ।
मुमुक्षुः- सीधा ज्ञायकको ग्रहण करे और दूसरा ज्ञान यथार्थ हो जाय।
समाधानः- हाँ, ... हो जाय। उसे साथमें आ जाता है।
मुमुक्षुः- किसीको कम विचारणा चले।
समाधानः- कम विचारणा चले। मैं कौन हूँ? ऐसा विचार करते-करते मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे ग्रहण हो जाय। तो उसमें उसे विकल्पके भेद, रागसे भेद सब एकसाथ आ जाता है। भेद सो मैं नहीं हूँ, परन्तु मैं एक अखण्ड द्रव्य हूँ।
मुमुक्षुः- पूर्व संस्कारका कारण बनता होगा?
समाधानः- नहीं, पूर्व संस्कार नहीं बनता। किसीकी वर्तमान तैयारी हो तो बने। चौथे कालमें ऐसा बन जाता। एकदम ग्रहण हो जाय। इस पंचमकालमें तो दुर्लभ है। जिसे अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है, उसे एकदम ग्रहण हो जाता है।
मुमुक्षुः- आपको सहज लगता है, और हमें बहुत उलझन होती है। कोई बार विचार करते समय उलझनका अनुभव हो, कोई बार ऐसा लगे कि नहीं, ये तो सहज है। बारंबार वही प्रश्न कैसे पूछे?
समाधानः- ऐसी निराशा होनेका कोई कारण नहीं है। भावना हो, इसलिये वह विचार चलते रहे। भावना हो इसलिये प्रश्न भी आते रहे। जबतक अंतरमें स्वयंको जिज्ञासा