अमृत वाणी (भाग-५)
५२ ओर लाती ही है। जगतको शून्य (होना पडे अर्थात) अपना स्वभाव कार्य किये बिना रहे ही नहीं। जगतको शून्य (होना पडे)। तो वस्तु ही न रहे, यदि स्वयं अपनी परिणति प्रगट न करे तो।
मुमुक्षुः- राग है, फिर भी राग तो वहाँ देखता नहीं। समाधानः- राग देखता नहीं। राग साथमें आये लेकिन राग देखता नहीं। राग रहित वस्तु मुजे चाहिये। ऐसी भावना है। अपनी परिणति अंतरमें-से स्वयं ही प्रगट किये बिना रहे नहीं। जगतको शून्य होना पडे। द्रव्यका नाश हो जाय। लेकिन द्रव्यका नाश तो होता ही नहीं। स्वयं अपनी परिणति प्रगट किये बिना नहीं रहता।
प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!