१७२ है। ऐसे बाहरमें भी निमित्त भी स्वयं परिणमता है, उपादान भी परिणमता है। ऐसा कुदरत-ऐसा स्वभाव है। परन्तु यथार्थ होना चाहिये।
मुमुक्षुः- एक बोल और आता है, माताजी! कि जागता जीव विद्यमान है, कहाँ जाय? जागता जीव माने कैसा?
समाधानः- आत्मा तो जागृत ही है। वह सदाके लिये शाश्वत जागृत ही है। ज्ञानस्वरूप जागृत ही है। उसका नाश नहीं हुआ है। नहीं जानता है ऐसा जड नहीं हो गया है। जागता जीव जागृत ही है, विद्यमान है। स्वयं लक्ष्य करे तो प्रगट हो ऐसा है। जागृत ही है। जागता जीव विद्यमान ही है, शाश्वत विद्यमान है। उस पर दृष्टि करके जाने तो अवश्य प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- .. पुरुषार्थ करनेकी युक्ति सूझ जाय तो मार्गकी उलझन टल जाय।
समाधानः- भीतरमें ज्ञायकस्वभाव आत्माका ज्ञानलक्षण पहचान ले कि यह लक्षण मेरा है, यह लक्षण विभाव लक्षण है, यह स्वभाव लक्षण है। स्वभाव लक्षणको पहचानकरके परिणति उसमें दृढ करे, दृढ प्रतीत करे, उसका ज्ञान दृढ करे, उसमें लीनता करे। ऐसे पुरुषार्थकी कल सूझ जाय ऐसी कला सूझ जाय। भीतरमें जानेका रास्ता उसे हाथमें आ जाय तो उलझन टल जाय। ऐसे।
स्वभावके लक्षणको पहचान ले। भीतरमें गहराईमें जाकर, गहरे जाकर लक्षणको ग्रहण कर ले और भीतरमें परिणति दृढ करे तो उसकी उलझन टल जाय। कला सूझ जाती है। परन्तु धीरा होकर आत्माको ग्रहण करना चाहिये।
मुमुक्षुः- राजचन्द्रजीके वचनामृतमें आता है कि ज्ञानी गुरुको पहचाने तो अपनी आत्माकी पहचान हो ही हो। तो ज्ञानी गुरु कैसे पहचाने?
समाधानः- ज्ञानी गुरु पहचानमें आ जाते हैं। जिसको सत स्वरूपकी जिज्ञासा लगती है कि मुझे सत कैसे प्रगट हो? तो उसे ज्ञानी, ये सत ज्ञानी है, ऐसा उसको पहचानमें आ जाता है। ज्ञानी है, आत्मा न्यारा कोई अपूर्व काम कर रहा है, उनकी वाणी अपूर्व है, ये अपूर्व है। उसे पीछान ले तो मार्ग हाथमें आ जाता है। ज्ञानीको पीछान लेता है।
जिसको सतकी जिज्ञासा प्रगट होती है, वह ज्ञानीको पहचान लेता है। उसका नेत्र ऐसा निर्मल हो जाता है, वह ज्ञानीको पहचान लेता है। और जो ज्ञानीको पीछान ले वह अपने आत्माको पीछान लेता है।
मुमुक्षुः- शरीर, रागसे एकत्वबुद्धि वर्त रही है, तो ये एकत्वबुद्धि कैसे तोडे?
समाधानः- एकत्वबुद्धि भेदज्ञानसे टूट जाती है। भेदज्ञान करे तो एकत्वबुद्धि टूट जाय। भेदज्ञान करनेसे एकत्वबुद्धि टूट जाती है।