९४ ज्ञानमें, दर्शनमें। अभेद है इसलिये एकदूसरेका एकदूसरेमें रूप है। ज्ञानमें आनन्द है, ज्ञान आनन्दरूप है। आनन्द गुण भिन्न भी है, परन्तु ज्ञानमें आनन्द है। आनन्दमें ज्ञान है।
मुमुक्षुः- अमुक स्पष्टीकरण गुरुदेव करते थे और अमुक स्पष्टीकरण करनेमें ऐसा कहते थे, ऐसा .. घटित होता है, परन्तु ऐसे नहीं घटता है। ऐसे दोनों प्रकार-से बात करते थे।
समाधानः- हाँ, ऐसा कहते थे। उसमें साधनामें तो दृष्टि एक आत्मा पर करे, उसमें सब आ जाता है। आत्मा कैसा शक्तिवान? कैसा अनन्त महिमावंत, अनन्त धर्मात्मक कैसा है, वह जाननेके लिये (आता है)। उसकी महिमा, आत्मा कैसा महिमावंत है, वह जाननेके लिये है। अनन्त गुणों-से भरा हुआ, अनन्तमें अनन्तका रूप है। अनन्त अनन्तरूप परिणमता है। उसकी महिमा कैसी है (वह जाननेके लिये है)।
वह पुस्तकमें आता है। एकदूसरेका एकदूसरेमें रूप है। एक प्रदेश इस रूप, इस रूप, ऐसे उसकी महिमा, एक चैतन्यकी महिमा (करनी है)।
मुमुक्षुः- चिदविलासमें दीपचन्दजी (कहते हैं)।
समाधानः- हाँ, चिदविलासमें आता है।
मुमुक्षुः- गुरुदेव बारंबार आधार देते थे।
समाधानः- अचिंत्य शक्तिवान आत्मा, कैसा चैतन्य द्रव्य है। उसमें बुद्धि-से काम करने जाय तो अमुक युक्ति-से बैठे, बाकी तो स्वानुभव गम्य है। अमुक युक्ति-से बैठे कि अनन्त गुणमें अनन्तका रूप है। अनन्तमें एक आनन्दरस वेदे, यह वेदे, वह वेदे, ऐसा करके कितने प्रकार लिये हैं।
अचिंत्य द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप है। और चेतनका स्वरूप कैसा महिमावंत है, वह उसमें जानना है। अपूर्वता भासे कि आत्मा कैसा महिमावंत है। अगुरुलघुकी बातमें ऐसा है। वह अगुरुलघु स्वभाव कैसा है! हानिवृद्धि रूप परिणमता होने पर भी ज्योंका त्यों है। वास्तविक हानिवृद्धि नहीं होती, उसमें तारतम्यतामें ज्योंका त्यों रहता है, उसकी परिणमन शक्ति कैसी है! अनन्त अनन्तरूप परिणमे फिर भी ज्योंका त्यों। तो भी उसमें कुछ कम नहीं होता, कुछ बढता नहीं। फिर भी परिणमन उस प्रकार हानि-वृद्धिरूप होता है।
मुमुक्षुः- वह भी गुरुदेव बादमें केवलीगम्य कहकर निकाल देते थे।
समाधानः- हाँ, केवलीगम्य कहते थे। तत्त्वका स्वरूप कैसा सूक्ष्म स्वरूप है! केवलीके केवलज्ञानमें आये। चेतनागुणमें ज्ञान-दर्शन कोई अपेक्षा-से कहनेमें आता है। और ज्ञान-दर्शन गुणको अलग भी कहते हैं। चेतनागुणके अन्दर सामान्य और विशेष दोनों साथमें (कहते हैं)। कोई अपेक्षा-से ज्ञान, दर्शनको अलग कहनेमें आता है।