उस जातकी एकाग्रता उसे छूटती ही नहीं। अमुक प्रकारकी एकाग्रता तो उसे है। उस एकाग्रतामें कुछ विशेषता हो जाय तो उसे बाहर-से ध्यानमें बैठे तो ही हो, ऐसा नियम लागू नहीं पडता।
मुमुक्षुः- ऐसा बन्धन नहीं है।
समाधानः- ऐसा बन्धन नहीं है कि बाहर-से शरीर ध्यानमें बैठे, ऐसा बन्धन नहीं है। शरीर बैठ जाय ऐसा बन्धन नहीं है। अंतरमें एकाग्रता (होती है)। अमुक एकाग्रता तो है ही, परन्तु विशेष एकाग्रता कब बढ जाय, शरीर बैठा हो ऐसा हो तो ही बढे ऐसा न्याय नहीं है। मुनिको तो है ही नहीं, परन्तु चतुर्थ गुणस्थानमें ऐसा नियम नहीं है। सब बार ऐसा नियम नहीं होता। कोई बार ऐसा भी बनता है कि ध्यानमें बैठा हो तब हो। बाहर-से ध्यानमें बैठा हो। कोई बार कोई भी स्थितिमें शरीर हो और ध्यान हो जाय। बाहरका बन्धन नहीं है। अमुक प्रकार-से सहज दशा हो जाती है।
अनादिका सर्व प्रथम हो उसे पलटनेमें थोडी मुश्किली होती है, किसीको अंतर्मुहूर्तमें भी हो जाता है। उसमें भी अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है। फिर तो उसकी दशा सहज है। इसलिये बाहरमें अमुक प्रकार-से बैठे तो ही हो, ऐसा बन्धन नहीं है।
मुमुक्षुः- एक बार निर्विकल्प दशा हो गयी इसलिये अमुक काल राह देखनी पडे ऐसा नहीं होता न? फिरसे तुरन्त भी हो सकती है।
समाधानः- राह देखनी नहीं पडती। जिसकी अंतर दशा चालू है, जिसे भेदज्ञानकी दशा चालू है, उसे अमुक समयमें हुए बिना रहती ही नहीं। उसे समयका बन्धन नहीं है। उसे अमुक समयमें हुए बिना नहीं रहती। जिसे अंतरकी दशा है, भेदज्ञानकी धारा वर्तती ही है, उसे हुए बिना नहीं रहती।
जो अंतर-से भिन्न पड गया, जिसका उपयोग बाहर गया, वह अमुक समयमें अंतरमें आये बिना नहीं रहता। उस उपयोगमें बाहर कुछ सर्वस्व नहीं है। भेदज्ञानकी धारा तो वर्तती ही है। स्वयं जुदा-न्यारा वर्तता है, क्षण-क्षणमें न्यारा वर्तता है। न्यारी परिणति तो है ही। उपयोग तो पलट जाता है। जैसी परिणति है वैसा उपयोग वापस हुए बिना नहीं रहता। परिणति अलग काम करती है, उपयोग बाहर जाता है।
परिणतिकी डोर उसे-उपयोगको वापस लाये बिना नहीं रहती। परिणति तो न्यारी है। भेदज्ञानरूप भेदज्ञानकी धारा निरंतर क्षण-क्षणमें विकल्पके बीच उसकी न्यारी डोर क्षण-क्षणमें सहजरूप है। परिणतिकी डोर न्यारी है, वह उपयोगको वहाँ टिकने नहीं देती। अमुक समयमें उपयोग वापस आ ही जाता है। स्वरूपमें लीन हुए बिना, निर्विकल्प दशा हुए बिना उसे नहीं रहती। परिणति उपयोगको वापस अपनेमें लाती है।