२८२ बाहरका जाना इसलिये कुछ कम हो गया और अन्दर गया तो बढ गया अथवा बाहर ज्यादा जाना तो बढ गया और अन्दर कम हो गया, ऐसा कुछ नहीं है। अथवा ज्ञेयाकार अशुद्ध हो गया ऐसा नहीं है। द्रव्य अपेक्षा-से ज्ञायक सो ज्ञायक ही है।
उसकी जो द्रव्यदृष्टि हुयी और द्रव्यकी परिणति जो प्रगट की, द्रव्य तो अनादिका है, उसमें जो दृष्टि स्थापित की, वह ज्ञानकी पर्यायमें हो या चारित्रकी पर्यायमें हो, कोई भी पर्यायमें हो, दर्शनकी पर्यायमें तो द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी है। तो सर्व अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। अनादि-से ज्ञायक है। वह ज्ञायकरूप परिणमित अनन्त-अनन्त शक्तियों-से भरा है। वह ज्ञायक सदाके लिये ज्ञायक ही रहता है। वह अंश है, यह अंशी है। सदाके लिये ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। पर्याय कोई भी परिणमे तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। ऐसा आचार्यदेवको कहना है।
कर्ता-कर्म कहकर पर्याय नहीं बतानी है। ज्ञायक ही बताना है। स्वरूप प्रकाशनमें ज्ञायक और ज्ञेयाकारमें ज्ञायक, प्रमत्तमें ज्ञायक और अप्रमत्तमें ज्ञायक, विभावकी कोई भी अवस्था हो, उसमें ज्ञायक सो ज्ञायक है। अनादि-से ज्ञायक सो ज्ञायक है। उसकी साधनाकी पर्याय प्रगट हुयी तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। ऐसा आचार्यदेवको कहना है।
कर्ता-कर्मका अनन्यपना अर्थात कर्ता स्वयं और कर्म उसकी पर्याय है। अनन्यपना अर्थात पर्यायकी अपेक्षा-से उसे अनन्यपना है। पर्याय उसमें नहीं है ऐसा नहीं है, पर्याय प्रगट हुयी है। स्वरूप प्रकाशनकी भले पर्याय प्रगट हुयी है, स्वानुभूतिकी पर्याय प्रगट हुयी है। कर्ता-कर्मका अनन्यपना है, तो भी ज्ञायक है। क्योंकि कर्ता-कर्ममें स्वरूप प्रकाशनकी पर्याय कर्मपने प्रगट की, वह कर्म पर्याय उससे बिलकूल भिन्न नहीं है। कोई अपेक्षा-से उसका अनन्यपना है। अमुक अपेक्षा-से अनन्यपना है। तो भी पर्यायका अनन्यपना हो तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। पर्यायका वेदन स्वयंको होता है। तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है, ऐसा कहना है।
अपेक्षा समझनी चाहिये। मूल वस्तु है। पर्यायको कोई अपेक्षा-से अनन्य कहनेमें आती है, कोई अपेक्षा-से उसे भिन्न कहनेमें आती है, कोई अपेक्षा-से अभिन्न कहनेमें आती है, उसकी अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न हैं।
मुमुक्षुः- इसमें जो प्रमत्त-अप्रमत्त कहा वह चारित्र विवक्षा-से कहा। और कर्ता- कर्म कहा वह ज्ञान-ज्ञेय विवक्षा-से कहा। उसमें ज्ञान-ज्ञेय विवक्षाकी अपेक्षा-से भले स्वको जानता होने पर भी वह अनन्यपना हुआ तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है, ऐसा कहना है?
समाधानः- हाँ, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। कर्ता-कर्म अपेक्षा-से स्वयं जाननेवाला और वह उसका कर्म हुआ। तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक है। क्योंकि कर्म वह परिणति