२८६ ज्ञायक स्वभाव ऊपर तैरता निर्विकल्प स्वभाव, ऐसा ज्ञायक आत्मा भगवान प्रगट होता है। ज्ञायक भगवान। लेकिन अंतरमेंसे भिन्न पडना चाहिये।
भेदज्ञानकी धारा प्रगट होनी चाहिये। फिर बाहर आये तो-तो भेदज्ञानकी धारा उसे चालू रहती है। सहज भेदज्ञानकी धारा। जिस क्षण विकल्प उत्पन्न हो, उसी क्षण उसे ज्ञायक स्वभाव भिन्न ही भासता है। दोनों धारा भिन्न चलती है। अंतरमें लीन हो जाय तो बाहरका कुछ ध्यान नहीं रहता। अंतरमें अकेला ज्ञायक स्वभाव, एक ज्ञायकमें ही स्वयं ऐसा लीन हो जाता है, उसमें स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है। ऐसी लीनता प्रगट होनी चाहिये।
यथार्थ ज्ञान-निर्णय करके फिर ऐसी लीनता अंतरमें प्रगट होनी चाहिये। उससे भिन्न होकर। ज्ञान, श्रद्धा और अमुक अंशमें लीनता। विशेष लीनता मुनिओंको होती है, परन्तु स्वानुभूतिकी दशामें भी लीनता ही होती है। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें भी लीनता (है), जो आंशिक स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट होता है।
... महिमा आकर, ज्ञायक स्वभावको पहचानकर ज्ञायकमें ही सबकुछ है, बाहर कुछ नहीं है, उतनी ज्ञायककी महिमा आनी चाहिये, स्वभावको बराबर पहचानना चाहिये और विभावसे विरक्त होनी चाहिये। स्वभावमें ही सब है, विभावमें कहीं रस नहीं आये, अकेले चेतन्यका रस बढ जाय, ज्ञायकका रस, ज्ञायककी महिमा, बारंबार ज्ञायक..ज्ञायक, ऐसी ज्ञायकदेवकी महिमा आये, उसे अंतरमेंसे ग्रहण करे और उसमें लीन हो तो विकल्प छूट जाय।
उसका क्रम वह है कि पहले बराबर ज्ञानस्वभावका निर्णय होना चाहिये। उसके बाद यथार्थ ज्ञान हो तो फिर यथार्थ ध्यान हो। ज्ञान और ध्यान इस प्रकार यथार्थपने होते हैं।
मुुमुक्षुः- निर्णय तो ऐसे बहुत बार होता है। चैन नहीं पडता। रातको जागते हैं, रतजगा नहीं लगे। कुछ लगे, लेकिन वह सब व्यवहारिक बात है। लेकिन जो वस्तु होनी चाहिये..
समाधानः- अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। अंतरमेंसे ग्रहण होना चाहिये। बारंबार उसका अभ्यास करते रहना, बारंबार। भले स्वाध्याय करे, विचार करे, सब करे, भले जब तक नहीं होता तब तक तो स्वाध्याय, विचार आदि ही करना होता है, परन्तु बारंबार उसका अभ्यास बारंबार करे। भेदज्ञानका अभ्यास बारंबार (करे)।
द्रव्य पर दृष्टि करके बारंबार मैं इससे भिन्न हूँ, इस प्रकार बारंबार उसकी महिमापूर्वक करता रहे तो होता है। बारंबार विचार करके अमुक निर्णय विकल्पसे करके फिर छूट जाय, भावना रहे कि मैं भिन्न.. भिन्न (हूँ), परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे तो