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श्रुतका विचार करे, नय, प्रमाण, वस्तुका स्वरूप, द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार आये, अनेक प्रकारके उसे विचार आते हैं। साधकदशा अधुरी है, अभी पर्याय अधुरी है, अधुरी पर्याय, पूर्ण पर्याय सबके विचार आते हैं। छठ्ठा-सातवाँ गुणस्थान, मुनिकी दशा कैसी हो, केवलज्ञान कैसा हो, उन सबका विचार (आते हैं)। पर्याय अधूरी है, आचार्यदेव कहते हैं, अरे..रे..! अभी पूर्णता नहीं हुयी है, इसलिये हम इस व्यवहारमें खडे हैं। अभी यह पर्याय अधूरी है। खेद है कि उसमें आना पडता है। पर्याय अधूरी है, इसलिये नय, प्रमाणके विचार उसे आते हैं, आये बिना रहते नहीं। पूर्ण दशा नहीं हुयी है।
सुवर्ण सोलह वाल शुद्ध हो गया, उसे कोई जरूरत नहीं है। जो पूर्ण वीतराग हो गये, पर्यायमें पूर्ण वीतराग और वस्तु तो वीतरागस्वरू है। पूर्ण शुद्धात्मा है। परन्तु पर्यायमें भी जो पूर्ण वीतराग हो गये, उन्हें कुछ नहीं होता। परन्तु जिसे अधूरापन है, बीचमें साधकदशा है, अभी लीनता बाकी है, चारित्रदशा बाकी है, इसलिये मुनि हो तो भी, उन्हें भी नय, प्रमाणके विचार आते हैं। शास्त्र लिखे, अनेक जातके देव- गुरु-शास्त्रके विचार होते हैं। पंच महाव्रतके परिणाम होते हैैं। बीचमें नय, प्रमाण वस्तुको जाननेके लिये, नय-प्रमाण आये बिना रहते नहीं, विकल्परूपसे।
दृष्टिमें ज्ञायकको ग्रहण किया वह परिणति तो चालू ही है। मुनिको छठ्ठे गुणस्थान अनुसार चालू है और चौथे गुणस्थानमें उसकी दशा अनुसार उसे चालू है। मुनिकी लीनता ज्यादा है, इसकी अमुक लीनता कम है। परन्तु श्रद्धा और ज्ञान और अमुक स्वरूपाचरण चारित्र है। मुनिको विशेष है। मुनिकी दशा अनुसार, मुनिको भी श्रुतके विचार तो आते हैं।