१५१ उसे भिन्न करना। अपने लक्षणसे भिन्न पडता है। विभावका लक्षण भिन्न और आत्माका लक्षण भिन्न। लक्षणसे भिन्न करना।
द्रव्य पर दृष्टि करके उस पर दृष्टिको स्थिर करना। गुणके भेद, पर्यायके भेद भी आत्माके स्वभावमें नहीं है। उसका ज्ञान करना, सबको जानना। दृष्टि एक चैतन्य पर रखनी। यह करना है। विकल्प टूटकर निर्विकल्प तत्त्वकी स्वानुभूति कैसे प्रगट हो, यह करना है।
.. अभ्यास करना चाहिये। ये तो अनादिका अभ्यास है। चैतन्यका अभ्यास बारंबार (करना चाहिये), ये विभावका तो अनादिका है। चैतन्यका अभ्यास करना वह अपूर्व है। कहीं भी हो, कर सकता है, करना अपने हाथमें है। लेकिन उसकी भावना तो ऐसी होती है न कि जहाँ देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य मिले। वहाँ कोई-कोई मुमुक्षु होंगे। ज्यादा तो होंगे नहीं।
मुुमुक्षुः- बहुत थोडे। समाधानः- शास्त्रका अर्थ समझना सरल पडे। मुमुक्षुः- यहाँ सुना हो, ... समाधानः- अपनी तैयारी चाहिये न।