सम्यक् ज्ञान होवुं जोईए. ‘पोताने कथंचित् विभावपर्यायो विद्यमान
छे’ एवो स्वीकार ज जेना ज्ञानमां न होय तेने शुद्धात्मद्रव्यनुं पण
साचुं ज्ञान होई शके नहि. माटे ‘व्यवहारना विषयोनुं पण ज्ञान तो
ग्रहण करवा योग्य छे’ एवी विवक्षाथी ज शास्त्रमां व्यवहारनयने
उपादेय कह्यो छे, ‘तेमनो आश्रय ग्रहण करवा योग्य छे’ एवी
विवक्षाथी नहि. व्यवहारनयना विषयोनो आश्रय (आलंबन, वलण,
संमुखता, भावना) तो छोडवायोग्य ज छे. जे जीवने अभिप्रायमां
शुद्धात्मद्रव्यना आश्रयनुं ग्रहण अने पर्यायोना आश्रयनो त्याग
होय, ते ज जीवने द्रव्यनुं तेम ज पर्यायोनुं ज्ञान सम्यक् छे एम
समजवुं, अन्यने नहि.