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iShTopadesh
[ bhagavAnashrIkundakund-
अथाह शिष्यः ! आत्मोपासनया किमिति भगवन्नात्मसेवनया किं प्रयोजनं स्यात् ?
फलप्रतिपत्तिपूर्वकत्वात् प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरितिपृष्टः सन्नाचष्टे : —
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रयः ।
ददाति यत्तु यस्मास्ति सुप्रसिद्धमिदं वचः ।।२३।।
टीका — ददाति । कासौ, अज्ञानस्य देहादेर्मूढभ्रान्तसंदिग्धगुर्वादेर्वा उपास्तिः सेवा । किं ?
यहाँ पर शिष्यका कहना है कि भगवन् ! आत्मासे अथवा आत्माकी उपासना करनेसे
क्या मतलब सधेगा – क्या फल मिलेगा ? क्योंकि विचारवानोंकी प्रवृत्ति तो फलज्ञानपूर्वक हुआ
करती है, इस प्रकार पूछे जाने पर आचार्य जवाब देते हैं —
अज्ञभक्ति अज्ञानको, ज्ञानभक्ति दे ज्ञान ।
लोकोक्ती जो जो धरे, करे सो ताको दान ।।२३।।
अर्थ — अज्ञान कहिये ज्ञानसे रहित शरीरादिककी सेवा अज्ञानको देती है, और
ज्ञानी पुरुषोंकी सेवा ज्ञानको देती है । यह बात प्रसिद्ध है, कि जिसके पास जो कुछ होता
है, वह उसीको देता है, दूसरी चीज़ जो उसके पास है नहीं, वह दूसरेको कहाँसे देगा ?
विशदार्थ — अज्ञान शब्दके दो अर्थ हैं, एक तो ज्ञान रहित शरीरादिक और दूसरे
pachhI shiShya pUchhe chhe — ‘bhagavan! AtmAnI upAsanAnun prayojan shun?
arthAt AtmAnI sevAthI sho matalab sare? kAraN ke vichAravAnonI pravRutti to phaLagnAnapUrvak
hoy chhe.
evI rIte pUchhavAmAn AvatAn AchArya kahe chhe —
agna – bhakti agnAnane, gnAn – bhakti de gnAn,
lokokti – ‘je je dhare, kare te tenun dAn.’ 23.
anvayArtha : — [अज्ञानोपास्ति ] agnAnanI (arthAt gnAnarahit sharIrAdinI) upAsanA
(sevA) [अज्ञानं ददाति ] agnAn Ape chhe (arthAt agnAnanI upAsanAthI agnAnanI prApti
thAy chhe), [ज्ञानिसमाश्रयः ] ane gnAnInI sevA [ज्ञानं ददाति ] gnAn Ape chhe (arthAt gnAnI
puruShonI sevAthI gnAnanI prApti thAy chhe). [यत् तु यस्य अस्ति तद् एव ददाति ] jenI pAse
je hoy chhe te ja Ape chhe, [इदं सुप्रसिद्धं वचः ] e suprasiddha vAt chhe.
TIkA : — Ape chhe. koN te? agnAnanI upAsanA — arthAt agnAn eTale