Moksha Marg Prakashak-Gujarati (Devanagari transliteration). Shrushtikartutvavadanu Nirakaran.

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एवा अनेक विचारो करतां कोई प्रकारे पण एक ब्रह्म संभवतो नथी, पण सर्व पदार्थो
भिन्न ज भासे छे.
हवे अहीं प्रतिवादी कहे छे के‘‘सर्व एक ज छे, पण तमने भ्रम होवाथी ते एक
भासतो नथी. वळी तमे युक्तिओ कही पण ब्रह्मनुं स्वरूप युक्तिगम्य नथी, ते तो
वचनअगोचर छे. एक पण छे, अनेक पण छे, जुदो पण छे तथा मळेलो पण छे. एनो
महिमा ज कोई एवो छे.’’ तेने उत्तरः
उत्तरःतने तथा सर्वने जे प्रत्यक्ष भासे छे तेने तो तुं भ्रम कहे छे, तथा जो
त्यां युक्तिअनुमानादिक करीए तो त्यां कहे छे के‘‘साचुं स्वरूप युक्तिगम्य नथी, साचुं
स्वरूप तो वचनअगोचर छे.’’ हवे वचन विना निर्णय पण केवी रीते थाय? तुं कहे छे के,
एक पण छे
अनेक पण छे तथा भिन्न पण छेमळेलुं पण छे, परंतु तेनी अपेक्षा तो कोई
दर्शावतो नथी, मात्र भ्रमित मनुष्यनी माफक ‘आम पण छे अने तेम पण छे’ एम यद्वातद्वा
बोली एनो महिमा बतावे (ए शुं न्याय छे?) परंतु ज्यां न्याय न होय त्यां मात्र मिथ्या
एवुं ज वाचाळपणुं करे छे तो करो पण न्याय तो जेम सत्य छे तेम ज थशे.
सृष्टिकर्तृत्ववादनुं निराकरण
हवे ते ब्रह्मने लोकनो कर्ता माने छे ते संबंधी मिथ्यापणुं दर्शावीए छीएः
प्रथम तो एम माने छेब्रह्मने एवी इच्छा थई के‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ अर्थात् ‘‘हुं
एक छुं तो घणो थाउं.’’
त्यां पूछीए छीए केजे पूर्व अवस्थामां दुःखी होय ते ज अन्य अवस्थाने इच्छे.
ब्रह्मे एकरूप अवस्थाथी बहुरूप थवानी इच्छा करी पण तेने एकरूप अवस्थामां शुं दुःख
हतुं? त्यारे ते कहे छे के
दुःख तो नहोतुं पण तेने एवुं ज कुतूहल ऊपज्युं. त्यां अमे कहीए
छीए के जे पूर्वे थोडो सुखी होय अने कुतूहल करवाथी घणो सुखी थाय ते ज एवुं कुतूहल
करवुं विचारे, पण अहीं ब्रह्म एक अवस्थाथी घणी अवस्थारूप थतां घणों सुखी थवो केम
संभवे? वळी जे प्रथमथी ज संपूर्ण सुखी होय ते अन्य अवस्था शा माटे पलटे? प्रयोजन
विना तो कोई कंई पण कार्य करतुं नथी.
वळी ते पूर्वे पण सुखी हशे तथा इच्छानुसार कार्य थतां पण सुखी थशे, परंतु इच्छा
थई ते काळमां तो ते दुःखी हशे ने? त्यारे ते कहे केब्रह्मने जे काळमां इच्छा थाय छे
ते ज काळमां कार्य बनी जाय छे तेथी ते दुःखी थतो नथी. त्यां कहीए छीए केस्थूळकाळनी
अपेक्षाए तो एम मानो, परंतु सूक्ष्मकाळनी अपेक्षाए तो इच्छा अने तेना कार्यनुं युगपत्
होवुं संभवतुं नथी. इच्छा तो त्यारे ज थाय के ज्यारे कार्य न होय अने कार्य थतां इच्छा
१०० ][ मोक्षमार्गप्रकाशक