Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है। धनादिक सामग्री किसीकी किसीके होती देखी जाती है, यह उन्हें अपनी मानता है।
तथा शरीरकी अवस्था और बाह्य सामग्री स्वयमेव उत्पन्न होती तथा विनष्ट होती दिखाई देती
है, यह वृथा स्वयं कर्त्ता होता है। वहाँ जो कार्य अपने मनोरथके अनुसार होता है उसे
तो कहता है
‘मैंने किया’; और अन्यथा हो तो कहता है‘मैं क्या करूँ?’ ऐसा ही होना
था अथवा ऐसा क्यों हुआ?ऐसा मानता है। परन्तु या तो सर्वथा कर्त्ता ही होना था
या अकर्त्ता रहना था, सो विचार नहीं है।
तथा मरण अवश्य होगा ऐसा जानता है, परन्तु मरणका निश्चय करके कुछ कर्त्तव्य
नहीं करता; इस पर्याय सम्बन्धी ही यत्न करता है। तथा मरणका निश्चय करके कभी तो
कहता है कि
मैं मरूँगा और शरीरको जला देंगे। कभी कहता हैमुझे जला देंगे।
कभी कहता हैयश रहा तो हम जीवित ही हैं। कभी कहता हैपुत्रादिक रहेंगे तो
मैं ही जीऊँगा।इस प्रकार पागलकी भाँति बकता है, कुछ सावधानी नहीं है।
तथा अपनेको परलोकमें जाना है यह प्रत्यक्ष जानता है; उसके तो इष्ट-अनिष्टका यह
कुछ भी उपाय नहीं करता और यहाँ पुत्र, पौत्र आदि मेरी सन्ततिमें बहुत काल तक इष्ट
बना रहे
अनिष्ट न हो; ऐसे अनेक उपाय करता है। किसीके परलोक जानेके बाद इस
लोककी सामग्री द्वारा उपकार हुआ देखा नहीं है, परन्तु इसको परलोक होनेका निश्चय होने
पर भी इस लोककी सामग्रीका ही पालन रहता है।
तथा विषय-कषायोंकी परिणतिसे तथा हिंसादि कार्यों द्वारा स्वयं दुःखी होता है,
खेदखिन्न होता है, दूसरोंका शत्रु होता है, इस लोकमें निंद्य होता है, परलोकमें बुरा होता
है
ऐसा स्वयं प्रत्यक्ष जानता है तथापि उन्हींमें प्रवर्तता है।इत्यादि अनेक प्रकारसे प्रत्यक्ष
भासित हो उसका भी अन्यथा श्रद्धान करता है, जानता है, आचरण करता है; सो यह
मोहका माहात्म्य है।
इस प्रकार यह जीव अनादिसे मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हो रहा है। इसी
परिणमनसे संसारमें अनेक प्रकारका दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका सम्बन्ध पाया जाता है।
यही भाव दुःखोंके बीज हैं अन्य कोई नहीं।
इसलिये हे भव्य! यदि दुःखोंसे मुक्त होना चाहता है तो इन मिथ्यादर्शनादिक
विभावभावोंका अभाव करना ही कार्य है; इस कार्यके करनेसे तेरा परम कल्याण होगा।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रके निरूपणरूप
चौथा अधिकार समाप्त हुआ ।।।।