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९६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कुदेव-कुगुरु-कुधर्म और कल्पित तत्त्वोंका श्रद्धान तो मिथ्यादर्शन है। तथा जिनमें
विपरीत निरूपण द्वारा रागादिका पोषण किया हो ऐसे कुशास्त्रोंमें श्रद्धानपूर्वक अभ्यास सो
मिथ्याज्ञान है। तथा जिस आचरणमें कषायोंका सेवन हो और उसे धर्मरूप अंगीकार करें
सो मिथ्याचारित्र है।
अब, इन्हींको विशेष बतलाते हैंः —
इन्द्र, लोकपाल इत्यादि; तथा अद्वैत ब्रह्म, राम, कृष्ण, महादेव, बुद्ध, खुदा, पीर, पैगम्बर
इत्यादि; तथा हनुमान, भैरों, क्षेत्रपाल, देवी, दहाड़ी, सती इत्यादि; तथा शीतला, चौथ, सांझी,
गनगौर, होली इत्यादि; तथा सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, औत, पितृ, व्यन्तर इत्यादि; तथा गाय, सर्प
इत्यादि; तथा अग्नि, जल, वृक्ष इत्यादि; तथा शस्त्र, दवात, बर्तन इत्यादि अनेक हैं; उनका
अन्यथा श्रद्धान करके उनको पूजते हैं और उनसे अपना कार्य सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु
वे कार्यसिद्धिके कारण नहीं हैं। इसलिये ऐसे श्रद्धानको गृहितमिथ्यात्व कहते हैं।
वहाँ उनका अन्यथा श्रद्धान कैसे होता है सो कहते हैंः —
सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म
अद्वैत ब्रह्म✽को सर्वव्यापी सर्वका कर्त्ता मानते हैं, सो कोई है नहीं। प्रथम उसे
सर्वव्यापी मानते हैं सो सर्व पदार्थ तो न्यारे-न्यारे प्रत्यक्ष हैं तथा उनके स्वभाव न्यारे-न्यारे
देखे जाते हैं, उन्हें एक कैसे माना जाये? इनका मानना तो इन प्रकारोंसे हैः —
एक प्रकार तो यह है कि — सर्व न्यारे-न्यारे हैं, उनके समुदायकी कल्पना करके उसका
कुछ नाम रख लें। जैसे घोड़ा, हाथी आदि भिन्न-भिन्न हैं; उनके समुदायका नाम सेना है,
उनसे भिन्न कोई सेना वस्तु नहीं है। सो इस प्रकारसे सर्व पदार्थ जिनका नाम ब्रह्म है वह
ब्रह्म कोई भिन्न वस्तु तो सिद्ध नहीं हुई, कल्पना मात्र ही ठहरी।
तथा एक प्रकार यह है कि — व्यक्ति अपेक्षा तो न्यारे-न्यारे हैं, उन्हें जाति अपेक्षा —
कल्पनासे एक कहा जाता है। जैसे — सौ घोड़े हैं सो व्यक्ति अपेक्षा तो भिन्न-भिन्न सौ ही
हैं, उनके आकारादिकी समानता देखकर एक जाति कहते हैं, परन्तु वह जाति उनसे कोई
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‘सर्व वैखल्विदं ब्रह्म’ छान्दोग्योपनिषद् प्र० खं० १४ मं० १
‘नेह नानास्तिर्किचन’ कठोपनिषद् अ० २ व० ४१ मं० ११
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद ब्रह्मदक्षिणतपश्चोत्तरेण।
अघश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।। मुण्डको० खं० ३ मं० ११