Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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छठवाँ अधिकार ][ १६९
तथा उन देवोंका सेवन करते हुए उन देवोंका तो नाम देते हैं और अन्य जीवोंकी
हिंसा करते हैं तथा भोजन, नृत्यादि द्वारा अपनी इन्द्रियोंका विषय पोषण करते हैं; सो
पापपरिणामोंका फल तो लगे बिना रहेगा नहीं। हिंसा विषय-कषायोंको सब पाप कहते हैं
और पापका फल भी सब बुरा ही मानते हैं; तथा कुदेवोंके सेवनमें हिंसा-विषयादिकका ही
अधिकार है; इसलिये कुदेवोंके सेवनसे परलोकमें भला नहीं होता।
व्यन्तरादिका स्वरूप और उनके पूजनेका निषेध
तथा बहुतसे जीव इस पर्यायसम्बन्धी, शत्रुनाशादिक व रोगादिक मिटाने, धनादिककी
व पुत्रादिककी प्राप्ति, इत्यादि दुःख मिटाने व सुख प्राप्त करनेके अनेक प्रयोजन सहित
कुदेवादिका सेवन करते हैं; हनुमानादिकको पूजते हैं; देवियोंको पूजते हैं; गनगौर, सांझी आदि
बनाकर पूजते हैं; चौथ, शीतला, दहाड़ी आदि को पूजते हैं; भूत-प्रेत, पितर, व्यन्तरादिकको
पूजते हैं; सूर्य-चन्द्रमा, शनिश्चरादि ज्योतिषियोंको पूजते हैं; पीर-पैगंबरादिकको पूजते हैं; गाय,
घोड़ा आदि तिर्यंचोंको पूजते हैं; अग्नि-जलादिकको पूजते हैं; शस्त्रादिकको पूजते हैं; अधिक
क्या कहें, रोड़ा इत्यादिकको भी पूजते हैं।
सो इस प्रकार कुदेवादिकका सेवन मिथ्यादृष्टिसे होता है; क्योंकि प्रथम तो वह जिनका
सेवन करता है उनमेंसे कितने ही तो कल्पनामात्र देव हैं; इसलिये उनका सेवन कार्यकारी
कैसे होगा? तथा कितने ही व्यन्तरादिक हैं; सो वे किसीका भला-बुरा करनेको समर्थ नहीं
हैं। यदि वे ही समर्थ होंगे तो वे ही कर्ता ठहरेंगे; परन्तु उनके करनेसे कुछ होता दिखाई
नहीं देता; प्रसन्न होकर धनादिक नहीं दे सकते और द्वेषी होकर बुरा नहीं कर सकते।
यहाँ कोई कहेदुःख देते तो देखे जाते हैं; माननेसे दुःख देना रोक देते हैं?
उत्तरःइसके पापका उदय हो, तब उनके ऐसी ही कुतूहलबुद्धि होती है, उससे
वे चेष्टा करते हैं, चेष्टा करनेसे यह दुःखी होता है। तथा वे कुतूहलसे कुछ कहें और
यह उनका कहा हुआ न करे, तो वे चेष्टा करते रुक जाते हैं; तथा इसे शिथिल जानकर
कुतूहल करते रहते हैं। यदि इसके पुण्यका उदय हो तो कुछ कर नहीं सकते।
ऐसा भी देखा जाता हैकोई जीव उनको नहीं पूजते, व उनकी निन्दा करते हैं
व वे भी उससे द्वेष करते हैं, परन्तु उसे दुःख नहीं दे सकते। ऐसा भी कहते देखे जाते
हैं कि
अमुक हमको नहीं मानता, परन्तु उस पर हमारा कुछ वश नहीं चलता। इसलिये
व्यन्तरादिक कुछ करनेमें समर्थ नहीं हैं, इसके पुण्य-पापसे ही सुख-दुःख होता है; उनके मानने-
पूजनेसे उलटा रोग लगता है, कुछ कार्यसिद्धि नहीं होती।